ठिठुरन
By- VARUN SINGH GAUTAM
ठंड – ठंड हवा के झोंके
आई ये शीतलहर चहुंओर
लगती जब लहर-लहर के
बदन पड़ जाती शिथिल
सब घर-घर कोने में दुबके
मुँह से कुछ न कुछ बोलते
ठिठुरन, कंपकंपी होने को है
रोएँ – रोएँ बढ़ उठ खड़े होते
चिपके – चिपके बिस्तर से हम
दुबूक – दुबूक ओढ़े कंबल में
उजले ओस बून्द गिरे ऊपर से
पौधें – पत्तियाँ उत्साह में भरी
सूरज जब न दिखती पूरब में
लोग अंगीठी में चिपके लगते
किसबी बैल ले खेत को जाते
पंक्षी पंक्ति में दाना को चुगती
देखो गेहूँ, धान की ऊपर की बाली
कैसी लगती सुनहरी पीली हाली
कहीं शहनाई बिगुल फूट पड़ी
ससुराल को वधू नैहर से जाते
दशहरे होली के बीच मध्यम में
ये शीतठंड ठहर लहर के पड़ती
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