By- VARUN SINGH GAUTAM
साँझ होने को है , हुई
तम तिमिर में ढ़कती जाती हौले – हौले
वक्त भी लुढ़कते विलीन में
मचल – मचलकर होते तस्वीर
ऋजुरोहित सप्तरङ्गी अचिर में छँटी
प्रस्फुटित तीर व्योम में होते शून्य
अपावर्तन ओक में खग प्रस्मृत
क्रान्ति धार पड़ जाती शिथिल
शशाङ्क ज्योत्स्ना अपरिचित कामिनी
त्वरित ओझल वल्लभ ऊर्मि किञ्चित
मृगनयनी रणमत्त अधीर अगोचर
निवृत्ति निवृति बटोरती सरसी में
खद्योत द्युति उन्मत्त दीवानी
झीङ्गुर झीं यामिनी राग में विस्मृत
श्यामली उर में नूतन लोचन
मृदु – मृदु कुतूहल किन्तु कौन्धती बीजुरी
निर्झरणी तरणी मनः पूत कैवल्य में
निर्झर – सी भुवन नीहार चित्त को
अलि – सी अचित अचित में तनी
मैं हूँ दिवा दीवा के भार विस्मित
यह कविता मँझधार पुस्तक से वरुण सिंह गौतम की स्वंयकृति है।
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