By- VARUN SINGH GAUTAM
रेल – रेल सी ज़िन्दगी में
क्या धोखा ? क्या दीवानी हो ?
पथ – पथ तिनका बिछाता मन में
हो रहा वसुन्धरा सङ्कुचित काया
बन बैठी मशक्कत मेरी दुनिया से
मैं हूँ गाण्डीव किन्तु अर्जुन नहीं
युधिष्ठिर दीपक का चिराग मैं
कुरुक्षेत्र शङ्खनाद का रथी नहीं
यह ललकार मेरी विजयपथ की
मैं लौट आया हूँ अपने जग
द्विज बनूँ या अपरिमित नहीं
रङ्गमञ्च सौन्दर्य होती उज्ज्वल
इस अट्टहास भरी परितोष नहीं
अलौकिक निर्मल सुदर्शन बनूँ
अपनी व्यथा तरुणाई में स्पन्दन
यह असीम नहीं अभेद्य हूँ
नाविक भार पङ्किल में प्रतिबिम्ब
झङ्कृत ज्योति में ठहराव कहाँ
यौवन बन चला लङ्घित धार
शरद् विकीर्ण चेतन में विभक्त
विस्मय विद्युत् की राही मैं
शृङ्खलित सङ्कुचित में समाहित
क्रन्दन के हाहाकार कुत्सित उद्वेलित
स्मृत स्वप्निल में धूमिल हृदय
आँसू अंगारे में कम्पित करुणा
उत्पीड़न कराह कलङ्कित तुषार
छाँह की तड़पन में प्यासा काक
हे पथिक पथप्रदर्शक करें अपना
यह कविता मँझधार पुस्तक से वरुण सिंह गौतम की स्वंयकृति है।
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