By- VARUN SINGH GAUTAM
विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर अति सुन्दर सृजित कविताएँ
ये होती प्रचंड किसकी सुने!
झुलस गई ये नदियाँ, वायु सारी
स्मृतियाँ की धुँध धरोहर जिसमें
यह अभय शीतलता अब कहाँ ?
समुद्र मन्थन अब नहीं….,
नहीं है लक्ष्मीप्रिया अब यहाँ ?
सभ्यताएँ मिटेगी, मनु प्राणशक्ति भी
मन विरह करता, देखो मैं जाना
तू भी ये अक्षर ज्ञान ले तलक
बस ये परिधान हरीतिमा के
हो यहाँ फलक………..
महारत्न है यहाँ, आँशू – सी निर्मल काया
किंचित ही पंचतत्व अपनत्व करो ज़रा
यहाँ ऋतुराज है कोई पतझड़ भला
नव्य रंग संचरण कर स्वंहृदय में
हर सृजन प्रस्फुटित हो, जाना
धरा फोड़ हर कण ताके ऊपर
ये भी शक्ति रहने दो ज़रा, मनु / बन्धुओं
विध्वंस नहीं, यह काल है सृजनहार
निरा पाषाण – सी निष्ठुर क्यों ?
द्रवित होता रूदन, चक्षु तो अश्रुपूर्ण
तन सने है पर व्याधि मचल है
यत्न करे कृष, बनिज इसे स्तब्ध
ये देह भी बेचे भर – भरे हाटों में
करते, सजाते वो महफिल के शृंगार
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