By- VARUN SINGH GAUTAM
क्या तृष्णा टूट पड़ी यहाँ ?
इस भिखमङ्गों के बाजारों में
कोई अट्टालिका खड़ा करता जाता
किसी की अँतड़ियाँ अंगारों में
पथ – पथ पर क्या कुर्बानी हैं ?
त्राहि – त्राहि कर रहा मानव
भ्रममूलक का जञ्जाल यहाँ
कोई रोता तो कोई चिल्लाता यहाँ
हाहाकार की नाद देखो गूञ्ज उठीं !
अशरत की पुजारी बन बैठे यहाँ
ज़ख़्म भरी धज्जियाँ फटेहाल
घूँट – घूँट में उगलती विष उत्पीड़न
रुधिर विरहित उत्कोच कफ़न
आधि – व्याधि के आततायी आतप
क्या शामत है उस कण्टक डङ्क में ?
घृणित – सी चिरायँध बिथा मर्दन है
अपाहिज़ अर्सा में क्यों है तड़पन ?
कटि कटी – सी क्लेश भरी कङ्गला
इस आरोहण में भी क्यों है कण्टक ?
लानत खलक में क्यों रन्ध्र भरी ?
यह कविता मँझधार पुस्तक से वरुण सिंह गौतम की स्वंयकृति है।
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