By- VARUN SINGH GAUTAM
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पथिक हूँ उस क्षितिज के
कर रहा जग हुँकार मेरी
लौट आया हूँ उस नव स्पन्दन से
कल – कल कलित कुसुम धरा
पथ – पथ करता मेरी स्पन्दन
होती प्रस्फुटित जलद सागर से
क्रन्दन के जयघोष शङ्खनाद मेरी
तम समर में आलोक अपना
पलकों में नीहार मन्दसानु नलिन
आगन्तुक के अन्वेषण प्रीति कली
मैं प्रवीण इन्दु प्राण ज्योत्स्ना
विस्तृत छवि तड़ित् मन में
सौन्दर्य ललित कामिनी उर में
वसन्त के सिन्धु बहार सुरभि
रिमझिम क्षणभङ्गुर में अपरिचित
अविकल आद्योपान्त विकल पन्थ है
प्रणय झङ्कार दृग में निस्पन्दन
बढ़ चला पथिक नभचल में
बूँद – बूँद प्रादुर् उस वितान में
मैं हूँ निर्विकार स्निग्ध नीरज
अकिञ्चन दत्तचित्त में निर्मल प्रवाह
कर्तव्यों में इन्द्रियातीत विलीन मैं
सव्यसाची उद्भिज दुर्धर्ष निर्गुण
दूर्बोध नहीं अविचल असीम चला
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