By- VARUN SINGH GAUTAM
कवित्त भाग – तीन
पता नहीं होगा तुझे…!
तुझे देखने की तमन्ना,
बातें करने की,
तुम्हारी मुखारविंद से
आवाज़ सुनने की
एक तरफ़ा ही सही
बस तुझसे ही है,
आखिर तुझसे ही है।
कहीं ओर ढूंढे या
सम्पूर्ण जहाँ, अन्तिम
तुम्हारी — सी
मधुवन नहीं दिखता
अपने हृदय स्थिति में कहीं
खाली – खाली सा पाता हूँ
कुछ अनकही है परन्तु है
सिर्फ हृदयचित्त में
जिसे तुझसे ही कह नहीं पाता हूँ
पता है साहस नहीं होता, भय है
कहीं तू हमसे मुँह न फेर ले
कहीं तुझे अन्देशा न हो जाएं
और मुझे नीच समझ न बैठ
मुरे व्यक्तित्व पर लांछन न लगे
इससे बच – बच फिरता हूँ।
तेरे ख्वाबों के परिसीमाओं तो
असीमित है परन्तु
मानों लगता है
तुम्हारी अनुपस्थिति में
ये हरेक क्षण भी अधूरी है।
पता नहीं एक नशा सी
तुम्हारी ही होती है….
तुम्हारे लिए मैं सदा ही
ईश्वर से प्रार्थना कर
बस तुझे ही माँगता हूँ
तू संगिनी बन मेरे सफ़र को
कृतज्ञ-कृतज्ञ कर चांद लगा दे…
जुन्हाई भर दे सिर्फ अपने
प्रेम वासनाओं से, ममत्व से
हमारे आने वाले प्रिय फूल में
तेरा ही आँचल मिले उसे,
तेरी ही छाँव में बचपना पले
यहीं विकलता है तुझसे ही
तुझे पाने को यहीं कशिश है
सिर्फ तुम्हारे लिए
मैं अपने हाथ की लकीरें भी
चीड़ कर तेरे भाग्य से तुझे
खींच कर पा लूंगा, बस तुझे ही।
आहे भर दर्द से कराह बस
तुझे ही मुझमें उतना ही पाता हूँ
पता है हमें, मैं इसमें स्वार्थी हूँ
परन्तु प्रेम तुझसे ही इतना करूंगा
नियति भी मेरे प्रेम को अपनाएंगे
बस तुझे ही अपने संगिनी बनाएंगे
जानता हूँ एक बात, अनवरत है
श्रीकृष्ण व राधा का प्रेम
बस प्रेम ही रह गया था
श्रीकृष्ण उन्हें पा नहीं सके
प्रेम अपने परिसीमाओं को छू
विकलताओं से प्यासी ही रह गई
ये प्यास अब मैं बुझाऊंगा
प्रेमी ग़र न मिले तो स्वं
प्रेमी में न्योछावर हो जाऊंगा
परन्तु मैं अपने प्रेमी को पाने को
मैं अपने शरीर को गला दूंगा
अस्तित्वहीन हो बस तेरी
आंचल को थाम के
तेरे प्रेम के एक प्यास लिए
बस तुझमें ही समा जाउंगा।
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