स्पन्दन
By- VARUN SINGH GAUTAM
एक स्पन्दन की टूटी सांसें,
पर प्रस्फुटन हो फिर चकाचौंध में
उसकी स्मृतिचिह्नों के कदम ताल पर
कौन धराधर ओ लताएं बैरी
करें इसे हर कोई दंडवत
रह रह इसे प्रणाम।
अस्तित्व के न्यौछावर में
एक भी बचा किसे जगहार
तत्पुरुष के प्रतिक्षा में
साध्वी प्रज्ञा के प्रज्ज्वलित के
किसे करें संस्कार, सद्भाव ?
ये मंत्र है उन दिग्गजों की
स्वेद के नीर में करें वो स्नान
तपस्या के तपन में पंचतत्व भी
करें सम्पूर्ण इन्द्रियों को प्रणाम
आच्छादित ये आंच है ये तह
चूल्हे के झोंके, दावाग्नि क्रमतर
वक्त अवसरों के आह्वान को
शंखनाद से करें स्वीकार
कोई यहाँ अब अधिशेष नहीं
रही शून्य की नगरी में
किसका है कितना हाहाकार।
पूज्यते स्वच्छन्द कर्मों से
जो करें स्त्रित्व की पहचान
आलिंगन के उतावले उसे
चन्द्रहास से करें नरसंहार
सृष्टि तो स्त्रिशेष के किनारों पे
पूरा ब्रह्मांड करें उच्चट् हुँकार
ये रहस्यमय है अपने भावभंगिमा से
अट्टहास निस्तेज निष्क्रिय कर
और ला सत्कर्म, समर्पण, सद्भाव
परन्तु यह प्रश्न नहीं शोभनीय
जिसे अश्रुपूर्णता हो असमंजस
ये किन्तु है समाधि समिधा ओतप्रोत
पर है किसका सम्पूर्ण अधिकार
कौन ये जानता, वैरागी कहाँ
जिसे प्यास उसे प्रेम या प्यार।
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