ये अन्धेरी रात
By- VARUN SINGH GAUTAM
ये अन्धेरी रात
मायूसी – सी
चुपचाप कोने में
चित्कार कर रही
पुकार रही मानों
जैसे हो बचाने को
पर कोई नहीं
सिर्फ दिख रहें इनके
आंशू की तेज धार
आंखों से गालों तक
रो-रो के बस भर रहे
क्यों!
इसे पेड़ काट रहे
या काले-काले मंडराते
विषदूषित रात
भरी-भरी सभा में ये
अपना दुखड़ा हृदयों में
छिपाएं ख़ुश है
कोई जानने को है
इच्छुक या अपनत्व
क्यों इसे कोई
तकलीफ़ है कष्ट है
थोड़ी – सी महरम
लगा दूं चोट पे
ये भी कहने को
यहाँ पे कोई है ?
ये तड़प रहे क्यों ?
साँस इनके फूल रहे
क्या ऑक्सीजन नहीं
कार्बन डाइऑक्साइड है
प्रबल इनके ऊपर ऊपर
उबले – उबले पानी सी
जैसे सौ के पारा पार
सेल्सियस या फारेनहाइट
मात्रा तो चार सौ पार
असह्य स्थिति में यें
कैसे होंगे अब बेरापार !
कैसे करें इसे सन्तुलन
कैसे होंगे सौन्दर्य रात!
छाई घनघोर काली रात
राख को कौन पूछे!
लगे यहाँ कोयला भी
ख़ाक़, सर्वनष्ट विकराल
पूर्णमासी नहीं, है ये
अमावस्या का काल
काली गहराई रन्ध्र सी
कर रहे सब हाहाकार
धुँआ-धुँआ चहुंओर
बिखरे-बिखरे विस्तीर्ण
रूग्ण दे रहे निमंत्रण
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