VARUN SINGH GAUTAM KI KAVITA

शीर्षक:- उपमान
तुम्हें किस नाम की उपमा दूँ ?
हिन्द महासागर गहराइयों का प्रेम
जिसके स्रोतस्विनी पाकर
वहीं, प्रशांत महासागर तुम हो
बताओं, सिन्धु नदी की
लहरियाँ, हिलोरें आदि सब
अब किस श्रेणी में बहती हो तुम ?
जिन्होंने तुमसे प्रेम किया था
वह अरब सागर कहाँ है!
वह सागर जिन्होंने मेसोपोटामिया, हड़प्पा
सभ्यताओं का एकमात्र साक्षी है
हाँ, एकमात्र साक्षी!
जिसकी पीठ पर बना वह भारत
जहाँ हम रहते हैं
वहीं रहती मेरी प्रेमिका
वह प्रेमिका जिसके बगिया में
रक्तपात है, चीख है
जिसके प्रायद्वीपीय में वह
अकेली है, निःसहाय है जिसे बदचलन की उपमान
इस समाज के द्वारा परिभाषित की जानी है
इसलिए डरी हुई है, प्रेम की संज्ञा भी भूल गयी है
मैं सर्वनाम कहलाता हूँ इसलिए
मैं कहता हूँ कि यह कविता है
स्त्री चेतना पर बनी कविता
जो प्रकृति को उपमान दे रही है कि
तुम कविता में ‘क’ की मात्रा हो
जिसे कहते हैं_ ‘क’ उपसर्ग पर बनी कविता
जैसे क से कलंक, कलुषित आदि सब।
शीर्षक :- धुअ
यह धुअ उतर रहा
वक्षस्थल के किनारे
इसका आयतन संक्षिप्त है
परिप्लव करता मेरा देह
परिदग्ध है, ध्रवीकरण होता मेरा मन
घिघियाते चादर, किसी त्रिज्या के परिधि में
समेटता मनुस्मृति के दीवार पर
बनता एक चाँद
पूरनमासी अमावस्या का परिचय देता
युगांतक होने की प्रक्रिया में
मेरा अन्त होना
युक्तिशास्त्र है
पर इस वसनार्णवा पर वसंत है
जूही की डाली पर
खिला यह फूल यह, धुअ है
जो उतर रहा
पूर्णमासी में
मैं मान लूं युगादि है ?
शीर्षक :- दुपहरी का चाँद
कई साँझ, कई भोर
कई वसंत, रोज़ बितते है मुझमें
पर मैं रोज चाँद हो जाता हूँ
पूर्णमासी का चाँद नहीं
न ही अमावस्या का, पर मैं चाँद हूँ
ब्रह्ममुहूर्त में प्रत्यवेक्षण पर
उगा हुआ चाँद
मेरी टूटी हुई खिड़कियों से समकोण रेखाओं पर प्रतिच्छेद
करता दरख़्त के ऊपर रखी मेरी सांसें
इसके समानांतर बहती हुई घाटी की नदी
कहोगे, मैं पानी हूँ ?
मेरे भीतों पर छिपकलियों की गश्ती
मेरा मन है
रोज़ प्रतिज्ञा करता, संकल्प लेता
मेरा वसंत!
मैं फिर कहता हूँ, मैं उस मोड़ पे रहता हूँ
जहाँ ग्लेशियर है
मेरा सिरमौर है, गर्व है
वह सींचता भूमि को जहाँ सींचती
मईया कोख को
जिसे जन्म दी है
उसकी किलकारियाँ
मेरी साँझ है, भोर है
मेरी सांसें
पर बीतता भविष्य!
दुपहरी का चाँद।
शीर्षक :- आकृति
मैं आकृति बनाता हूँ
पर यह आकार नहीं ले पाती है
जिन्होंने मुझे बनाया
एक चौबीस वर्ष का इंसान
वह मेरी माँ
वह जानती है मैं कवि हूँ
यह कवि मेरी माँ है
मैं उनकी लिखी हुई कविता!
कविता में आत्मजा शब्द
अपनी देह की ट्रूकॉपी है
चौबीस वर्ष बाद
वह भी लिखेगी कविता
एक माँ होना।
मेरी माँ अड़तालीस की हैं
पिता पचास।
शीर्षक :- चुप
बहुत एकाकीपन है
जीवन तुम्हारा
बहुत इंतजार है, वर्षों का
जन्म और मौत के बीच
जो भी जीवन है।
यह जीवन एकाकी है
परिचयहीन, उद्देश्यहीन, कर्तव्यहीन,
सड़क है, आदमी नहीं
आदमी हैं, सड़क नहीं
हदय मेरे अस्थिपंजर
मरणासन्न, जो भी बचे
अं ति म सांस
रेगिस्तान !
पर
सभ्यता होना, हम समझे
एकाकी होना
एकदम सन्नाटा, एकांत
चुप।
शीर्षक :- सात
तुम्हें याद करता हूँ बहुत, तुम्हारी अनुपस्थिति में
पर मैं सदा उपस्थित रहता हूँ अपनी यादों में
यह प्रक्रिया क्या ? तुमसे प्यार है
इस देह को तड़पना। इसके असह्य स्थितियों में
अचानक! मेरी यादों में तुम्हारी अनुपस्थिति होना
यह क्या! प्रेम कम होना है, तुम यह कहोगे
या कहोगे मुझे कर्तव्यों का भान नहीं है
जैसे मगसर में उत्तरी गोलार्द्ध के पूर्वी छोर पर सूर्य का उतरना
कितना संयोग है ?
सतयुग का पुनः आरंभ होना!
इसकी कल्पना मात्र मेरे ज़हन में उमंग भर देता है
पर मेरे हृदयंगम में अंटार्कटिका रेगिस्तान है
अकस्मात्! मेरे जीवन में अफ्रीका सहारा रेगिस्तान धीरे-धीरे उतरना भारत के मेघालय का मौसिनराम होना है
कितना सत्य है ?
एक परिणय के लिए आध्यात्मिकों में आत्मा को खोजना
यह भी संभव है! जन्मों जन्मों तक ब्याहा रहना
कितना प्रमाणिक है अग्नि के साथ फेरे लेकर ध्रुव तारे को साक्षी मानकर शरीर, मन, बुद्धि, हृदय, प्राणों से एक सूत्र में बंधकर एक पूर्ण आत्मा होना
यानि पृथ्वी में मौजूद संख्या सात होना
यह प्रेम है ?
संभव है सात होना!
इक्कीसवीं शताब्दी!