VARUN SINGH GAUTAM KI KAVITA

शीर्षक:- महफ़िल भी जल उठी
चल दिया अंतिम बेला तट के यहाँ
महफ़िल भी जल उठी पन्नग व्याल में
अधम लहू दृग धो रही चिरते – चिरते चिर को
अवपात मै , चाल भी मेरे कच्छप के…
कारुण्य दामिनी प्रवात के रश्मि आँगन में नहीं
खोजता नभ पे वों भी मद में पड़ा
क्षितिज प्राची से लौटी खग से जाकर पूछो ?
क्या उसे भी मिली नव्य कलित नयन राग ?
उपवन भी नतशिर करती सरहद हुँकारों के
किन्तु मजहब ख़ुद में कौन्धती अपनी क्रान्ति से
इन्धुर भी कहाँ जाती , कबसे इस ओक या उस ओक
क्या केतु भी चला औरों के ऊर्ध्वङ्ग शान – सौगन्ध के ?
किञ्चित प्रत्यञ्चा चढ़ा दो स्वयंवर सीता के
परशुराम ताण्डव प्रचण्ड निर्मल कर दो संसार
अविरत नहीं यदा – कदा भी नहीं आती विभाकर अनीक
यह द्युति भी छिपा प्रसून क्लेश प्रखर के
किङ्कर , अज्ञ , वामा आनन दोज़ख के
अभिशप्त है कौतुक – सी म्यान में कृपण नहीं
त्रास में सतत पला सिन्धु भी निर्मल नहीं जिसके
कुम्भीपाक में मै भी समाँ निर्झर – सी धार
शीर्षक :- स्पन्दन उन्मद के
मेरा क्या ! इस शून्य भव जल के
आया बहुरि पुनः दीपक द्युति के चल…
आज इस , कल उस समर के कुन्तल
कहाँ छिपा मकरन्द हयात केतन के ?
प्रतिबिम्ब बिखेरती विभावरी स्वच्छन्द में
अरुण भी बढ़ चला पृषदश्व के पानी
लौटता फिर दिव से बनके तरङ्गित दामिनी
घनीभूत घन से बूँद – बूँद नीहार
चाह कहाँ होती विलीन , ओझिल भी कहाँ ?
यह चीर मही वारि तुङ्ग दीर्घ के भुजङ्ग
साध्वस भृकुटी मे छिपा अक़ीदा के नहीं
असित भी मौना कबसे कौन जानें , कैसे ?
संसृति के दरकार थी स्पन्दन उन्मद के
टूट के स्मित कलित झङ्कृत पुलक नींव
बिछाती कलेवर घेर रहा परभृत स्वर में
अघात धरा को प्रतिध्वनित कर दो धार को
अकिञ्चन आनन को न देख , शुचि उर को
बढ़ चला अभ्र पन्थ – पन्थ को बूँद – बूँद
उस शिखर तुङ्ग के उदान्त क्षितिज नभ के
कण्टकाकीर्ण का इस्तक़बाल मुझे यह कुदरत ईजाद
शीर्षक :- अरे इंसान तू कौन है
मेरे हिस्से में जो इंसान बचा था
वह भी मुझसे छीन लिया है
इस समाज ने__
छीन लिया है हमारी संपत्ति-जायदाद, परिवार-परंपरा, संस्कृति-संस्कार, ज्ञान-बुद्धि सबकुछ।
हम बेघर हो चुके हैं
लिबास भी मेरे तन पर नहीं है
इसलिए, मैं आज असभ्य हूँ
असहाय हूँ।
आदमी नहीं हूँ, मैं क्या हूँ ?
यह भी मैं भूल चुका हूँ ।
किसलिए हूँ ?
यह भी मुझे नहीं पता।
मेरी पहचान क्या है ?
जैसे नाम, पता, शिक्षा, काम, घर-परिवार
यह क्या होती मुझे नहीं पता।
आखिर मैं ऐसा क्यों हो गया हूँ ?
इसकी भी स्मृति नहीं बची।
इसका जिम्मेवार कौन है ?
क्या यह समाज या फिर मैं
यह गहरा प्रश्नचिह्न है।
मैं उस समाज से पूछता हूँ
जिस समाज ने हमें पशु माना, हाशिये पर घसीट के फेंक दिया।
बताओ, आखिर मेरा कसूर क्या था ?
जिन्होंने न्याय नहीं दिया
इस समाज के जिम्मेदार व्यक्ति कौन थे ?
क्या वह न्यायधीश भी इस समाज के हिस्सा थे
जो कोर्ट में न्याय देते हैं।
यह प्रश्न उत्तर मिलने के बाद_
मनुष्य के अस्तित्व पर सवाल उठ खड़ा होता हैं।
आपसे ईश्वर प्रश्न करता है कि आपको किस देश का संविधान ने अधिकार दिया था ?
मेरी इंसानियत जिंदा दफ़ना देना
मैं कहता हूँ आदमी में इंसान नहीं बचा है
वह हैवान है, निर्लज्ज है, अपराधी है, बदकारी है।
आखिर मैं प्रश्न करता हूँ उस समाज से
जिसने मुझे असभ्य बनाया।
क्या मेरे हिस्से का इंसान का दर्जा
पुनः दिला सकता है ?
जिससे सभ्य की परिभाषा की कैटेगरी में नीचला पायदान का अधिकारी भी हो सकूं।
शीर्षक :- लाशों पर उगे चंद्रमा
रोज़ सीखने की प्रक्रिया में आज मैंने
कविता लिखना सीखा
मैंने सीखा दलितों पर लिखना,
भूखें नंगों पर लिखना, जो आज असभ्य हैं।
जिसे समाज ने परिभाषित किया
उस स्त्री को, वह स्त्री संघर्षी है
पति की मारपीट सहती नहीं है
प्रतिरोध करती है, लड़ना भी जानती है
वह भी अभी-अभी कविता लिखना सीखी हैं
जो लिखती हैं पुरुषवादी समाज का, जिसका पुरजोर
विरोध करती है अपना अधिकार मांगती हैं कि
सत्ता में बराबरी का हक चाहिए
इसलिए क्रांति का बिगुल फूंक चुकी है
धरना, प्रदर्शन, आमरण अनशन आंदोलन कर रही है
उसके साथ ही पास में बैठा एक आदमी
जो समाज से बहिष्कृत है क्योंकि वह दलित है
जाति के ऊंच-नीच के बोझ के तले कुचलें हैं
उसके तन लाठी, जुतों, थपेड़ा के मार से छील गये है
देह पर काले-काले से धब्बें पड़े हैं, पीड़ा से असह्य है
बहुत ही ज्यादा प्रताड़ित है, कराह रहें हैं
फिर भी इनमें साहस है उम्मीद है भरोसा है
इन्हें भी सत्ता में हिस्सा चाहिए इसलिए
वे भी कविता लिखना सीख चुके है
वे कविता लिखते हैं
उस कविता का शीर्षक है ‘लाशों पर उगे चंद्रमा’
इसकी अनुशीर्षक में लिखे हुये हैं__
जिसके देह के कंकाल में न खून न पानी है,
उसी घाटों पर की अंतिम छोड़ पर अकेला किसी श्मशान में लाशों पर उगे हुए चंद्रमा!
जो दीप्तिमान् है अपने सम्पूर्ण आकारों में
अमावस्या के दिन होंगे पूर्णिमा
पूरा गोल चाँद!
शीर्षक :- माघ सप्तमी
मेरा बीता हुआ बसंत!
पच्चीस साल।
आज माघ सप्तमी है
अलसाया हुआ मेरा देह
अठखेलियाँ लेता मेरा मन
पतझड़ की सूखी हुई पत्ती
पेड़ पर बना हुआ
कोबवेब में फंसी हुई है
उसी किनारे घास-फूस, तिनके, खर, पत्तियों से
खोता बना था, उसमें अंडे नहीं थे
शायद दोनों पंछी और पत्तियाँ ढूँढ़ने गये होंगे
धूप की तेज किरणें है
अरे! शाम हो चला है
अनायास ही मैं भी वहीं खड़ा था
बरगद पेड़ के नीचे
कुछ काम नहीं है
बस यूँ ही।
ओह! ध्यान आया
मेरी माँ खीर बना रहीं होंगी
मेरी बाट जोह रहीं होंगी
मैं भी घर लौट चला।