VARUN SINGH GAUTAM KI KAVITA

शीर्षक:- सर्पपाश
आलिंगन!
ये कोई प्रेमिका का नहीं
अपितु सर्पपाश है
क्यों ?
अकेलापन, अहं, एटीट्यूड
पाश कर जकड़ रखी है
जो मुझे बार-बार कौंधता है
जब उससे छिपता हूँ
तो
मेरे देह में भूचाल का नृत्य
शोर करने लगता है
फिर वही सर्प पाश में
दफ़न हो मृत्यु शय्या पर सो जाता हूँ!
शीर्षक :- पुतला
मैं उस दिन का पुतला हूँ
जिसे आज लाश बनकर उड़ जाना है
उड़ जाना है झोपड़ पट्टी,
आँगन में गोरैयें, परिवार सबकुछ!
इस रिक्त स्थान को भरने
गांव के शहर बनने की प्रक्रिया में
दह जायेंगे, सड़ जायेंगे
फिर उड़ जायेंगे
वहीं पुतला!
जिसके बनने की प्रक्रिया में लगे थे
सौ साल।
भग्नावशेषों के शिलाओं पर
बचेंगे तजर्रुद, पाशविक, कामुकता,
अंबरलेखी अट्टालिकाओं के दीवारों पर
लगेंगे छिपकलियों के गश्त
जिस बिल्डिंग से लाइट फॉक्स करेंगी
वहीं मिलेंगे ‘उस दिन का पुतला’
जो बिल्कुल नग्न, अस्तित्वहीन।
शीर्षक :- नदी अब तक क्यों सभ्य नहीं हुयी
नदी अब तक क्यों
सभ्य नहीं हुयी
इस खड़ी हुई अट्टालिकाओं के
चकाचौंध में
तुम चुप हो!
कुछ क्यों नहीं बोलती
क्या यह आधुनिकीकरण तुम्हें
खोखला कर रहा है
मुझे बताओ प्रिय
आखिर
बात क्या है ?
फिर नदी बताती है कि
अपने अस्तित्व के लिए,
खुद को बचाने के लिए
मनुष्य के सर्पदंशों से
बच रही हूँ
आखिर बोलो
मेरा क्या कसूर ?
शीर्षक :- वरुणा नदी
मैं वह आदमी हूँ
जिसका पूर्वजन्म
वरुणा नदी के रूप में हुआ था
पर मैं आज आदमी हूँ
यह जन्म नहीं यह अवतार है
अपने अधिकार लिए
सुप्रीम कोर्ट में लड़ेंगे
लोगों से लड़ेगे
मेरी क्रांति मेरी हित में होगी
हमें यह उम्मीद है
भरोसा है
हम जरूर जीतेंगे।
शीर्षक :- हड़प्पा सभ्यता
सिन्धु नदी का प्रवाह जहाँ
हड़प्पा सभ्यता का विकास वहाँ
पुरावस्तुओं – साक्ष्यों का अन्वेषण
संस्कृति सभ्यता का है पदार्पण
मध्य रेलवे लाइन तामील दौर
बर्टन बन्धुओं इत्तिला आईन से
आया हड़प्पा सभ्यता का इज़्हार
नई संस्कृति नई सभ्यता का दौर
बहु नेस्तनाबूद भी बहु प्रणयन भी
नगरीकरण का आसास उरूज़
निषाद जाति भील जानी काया
मिलें मृण्मूर्तियाँ वृषभ देहि
चार्ल्स मैसेन की पहली खोज
कनिंघम आए , आए दयाराम साहनी
आया मोहनजोदड़ो का वजूद भी
रखालदास बनर्जी का है तफ़्तीश
अन्दुस – सिन्धु – हिन्दुस्तान रूप
बृहत – दीर्घ इतिवृत्त सभ्यता
क्षेत्रीयकरण – एकीकरण – प्रवास युगेन
मिला अवतल चक्कियाँ का राज
विशिष्ट अपठनीय हड़प्पा मुहर
कांस्य युगेन का कालचक्र आया
मोहनजोदड़ो , कालीबङ्गा , लोथल ,
धोलावीरा , राखीगढ़ी का यहीं केन्द्र
कृषि प्रधान की अर्थव्यवस्था
और थी व्यापार और पशुपालन
अनभिज्ञ थे घोड़े और लोहे से
जहाँ कपास की पहली काश्तकारी
बृहत्स्नानागार सङ्घ का अस्तित्व
थी स्थानीय स्वशासन संस्था
धरती उर्वरता की देवी थी
शिल्पकार , अवसान का इस्बात है
शीर्षक :- जीवन का प्रादुर्भाव
जीवन का प्रादुर्भाव
सौर निहारिका की अभिवृद्धि से ,
हुआ हेडियन पृथ्वी का निर्माण ।
आर्कियन युग का आविर्भाव ,
हुआ जीवन का प्रादुर्भाव ।
हीलियम व हाईड्रोजन संयोजन से ,
सूर्य नक्षत्र का आह्वान हुआ ।
कोणीय आवेग के प्रतिघातों से ,
हुआ व्यतिक्रम ग्रहों का निर्माण ।
ग्रह – उपग्रह का उद्धरण आया ,
आया गुरुत्वाकर्षण का दबाव ।
ज्वालामुखी सौर वायु के उत्सर्जन से ,
हुआ वातावरण का प्रसार ।
सङ्घात सतह मेग्मा का परिवर्तन ,
किया मौसम – महासागर का विकास ।
लौह प्रलय के प्रक्रिया विभेदन से ,
ग्रहाणुओं से स्थलमण्डल का विकास ।
अणुओं रासायनिक प्रतिलिपिकरण से ,
मिला जीवाणुओं से जीवन का आधार ।
आवरण सन्वहन के सञ्चालन से ,
हुआ महाद्वीप प्लेटों का निर्माण ।
एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय बना ,
वनस्पति से मानव का हुआ विकास ।
संस्कृतियाँ आई सभ्यताएँ आई ,
है मिला विश्व जगत का सार ।
सम्प्रदायों के परिचायक एकता से ,
मिला टेक्नोलॉजी का आधार ।
राजतान्त्रिक से लोकतान्त्रिक बना ,
हुआ मानव कल्याण का विकास ।
शीर्षक :- ऐ नगेश हिमालय !
ऐ नगेश ! रक्षावाहिनी !
ऐश्ववर्य – खूबसूरती महान !
प्रातः कालीन का सौन्दर्य तुङ्ग ,
रत्नगर्भा मानदण्ड हो !
मार्तण्ड नीड़ – पतङ्ग में तान रहा ,
पुरुषत्व समवेत महीधर हो ।
जम्बू द्वीपे के हिम उष्णीष ,
सिन्धु – पञ्चनन्द – ब्रह्मपुत्र के चैतन्य ।
तू ही ब्रह्मास्त्र – गाण्डीव हो ,
रत्न – औषधि – रुक्ष का वालिदा ,
हिमाच्छादित , वृक्षाच्छादित हो ।
युग – युगान्तर तेरी महिमा ,
गौरव – दिव्य – अपार ।
टेथिस सागर प्रणयन है ,
जहाँ ऋषि – मुनियों का विहार ।
जीवन की अंकुरित काया ,
सर्वशक्तिमान नभ धरा हो ।
प्रियदर्शी – पारलौकिक – अजेय ,
सांस्कृतिक – आर्थिक अविनाशी हो ।
सुखनग – अभेध – जिगीषा ,
शाश्वत ही पथ प्रदर्शक हो ।
कैसी अखण्ड तेरी करुणा काया ?
तड़प रही विश्वपटल का राज ।
सदा पञ्चतत्व में समा रहा ,
कोरोना के रुग्णता का हाहाकार ।
मुफ़लिस कुटुम्ब नेस्तनाबूद हुए ,
मरघट हो रहा कृतान्त का समागम ।
क्यों मौन है ऐ विश्व धरा ?
ले अंगड़ाई , हिल उठ धरा ।
कर नवयुग शङ्खनाद का हुँकार ,
सिंहनाद से करें व्याधि विकार ।