VARUN SINGH GAUTAM KI KAVITA

शीर्षक:- खालीपन
अकेला रहता सूर्य
जैसे पृथ्वी की चन्द्रमाएँ
कहोगे! मुझे भी उपमान दो
अकेलापन की।
मेरे मन की कल्पनाओं की।
मेरे वजूद की।
मेरे अंतर्रात्मा की काली रात!
खौफनाक है
लौटता मेरा खालीपन
जिसमें याद आती हैं मेरी माई
जिनके भाषा की खड़ी पाई की परिभाषा की
प्रमाणिकता पर बीतता मेरा वसंत का होना
पर अब उनके अनुपस्थिति में
मेरा अकेला रहना बड़ी त्रासदी है।
कुछ वर्षों के अंतराल में…
तुम्हारी नदी अब मेरे शहर की ओर नहीं गुजरती है
मेरे खिड़कियों के अंदर – प्रकाश भी उतनी नहीं बची है
बहुत खाली-खाली है
मन की कल्पना
वजूद
अंतर्रात्मा सबकुछ।
शीर्षक :- फ़्लैश
संस्कृति, सभ्यता और परंपरा के पुजारी
बैठे थे पालथी में
मंदिर गर्भगृह के परिक्रमा द्वार पर
बस, वह बैठें हैं।
देख रहे हैं मानवीय करुणामय को द्रवित करता
यह मेरा वंशज। तनया।
मानव के आवरण के पिंजरों में बैठा
मान-मर्यादाओं के उपनिषद्
जिसे धराशायी करता यही श्रृंखलाएँ आदमी होने का,
आदमी! यह पत्राचार करता नायक कौन है ?
जिसके संज्ञा पर उपारूढ़ होता है यह वृक्षस्तंभ के नीचे लगा सीढ़ियाँ पर से उतरते बहुत से चेहरे
उस बाज़ारों के चकाचौंध में अंधा है।
मनावता से बना पुंज के खलनायक कौन है ?
जिसका यमराज दो बुद्ध बना
एक बुद्ध के मांग में सिन्दूर
जिसके सात मन, क्रम, वचन से जन्म-जन्मांतर तक शुद्ध होने का अभिप्राय है
वह महावीर कौन है ? जिसके देह पर तिहत्तर छुरियाँ चले
उस टुकड़ियों के लाशों पर बैठा आख़िर दूसरा बुद्ध कौन है!
दूसरे दिन बड़े-बड़े पोस्टरों, विज्ञापनों, न्यूज़ों के हाइलाइट्स पर फ़्लैश होता है
” पत्नी ने प्रेमी संग की पति के तिहत्तर टुकड़ियाँ_प्रेमी संग हनीमून”
शीर्षक :- अभिव्यक्ति
मेरी अभिव्यक्ति की चपलता मुझे कभी नहीं
समझाया कि तुम चुप रहो।
चुप रहना सभ्यताओं के सर्वनाश में बैठा यमराज,
जो बुलाता रहा चुनावी प्रक्रिया से पूर्व गठबंधन करने को
पर मेरा भूतपूर्व स्वप्न मुझे आमंत्रित करता रहा
इस अनिवार्यता की श्रृंखलाओं में
मैं रोज़ स्पाइडर’ज़ वेब में धीरे-धीरे फंसता गया
फंसता गया दुनिया के भ्रमजालों में,
जिस रेत पर धुआं उठाना ही कल्पनामात्र है
इस कल्पनाओं के जद्दोजहद की भयावहता में
तलाशता रहा
अपनी अभिव्यक्ति
जिस पर पनपेंगी मेरी भाषा
अर्थात् मातृभाषा
जिस भूगोल पर मेरा होना था पर
मेरी अस्मिता ( पिता ) की अनुपस्थिति में मेरे जीवन के
कोहरा का हो गया अकस्मात् विराम!
इस विराम के प्रश्न-चिन्ह पर मेरी प्रजाति
जो मुझे ढूंढने निकला साहित्य की लौ का सच
यानि मेरा सच! कविता!
जिसे कल “बेंच और बार” ने प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर फैसला कर दिया है
‘सज़ा-ए-कत्ल’
मेरी अभिव्यक्ति की मौत!
मौन।
चुप।
शीर्षक :- आकार
मैं उस नदी का नदी हूँ
जिसने नहीं जाना कविता, सब कुछ।
कविता का ‘क’ वर्ण , तुम वहीं काम हो
जिसे किसान जाना खेत पर शब्द उगाना
उस शब्द पर बुनी हुई प्रेम, संवेदनाएं, सभ्य होना
यह उस मिट्टी का अंश मात्र है
जिसने बनाया आदमी को, कितना प्रमाणिक है ?
इस आदमी के लिए बना हुआ यह रास्ता
नदी की ओर जाती है!
जिसने बनाया नदी को। कविता।
मेरे घर को आती है, ननिहाल
दलान पर खटिया पर बैठी मेरी नानी
मिट्टी के दीपले बना रही है
जिसका आकार स्वयं गढ़ रहीं है
टेढ़े-मेढ़े दिपली।
जो मुझे बनाया, मेरी माँ है
मेरी माँ की माँ,
मातामही
तीन पीढ़ियों का एक होना
प्रयाग है।
दुनिया के इस सभ्यताओं के घेरे में जिसने
लिखी होगी पहली कविता
क्या वही तुम नदी हो!
जिसने अभी-अभी कविता करना सीखा
‘क’ वर्ण की कविता!
कविता मेरी पत्नी है।
शीर्षक :- पीठ
मेरी पीठ पर खड़ा है
एक महल
अट्टालिकाओं का पहाड़ है
लुभाते हैं जैसे हो यौवन के देह पर
खिले हुये हो फूल!
खंजर हृदयों में ठहरा यह भूमि पर
घर नहीं होता
नानी की खटिया नहीं होती
मचान नहीं मिलता
बस मिलता आदमियों के पीठ
जिस पर उगे हुये हो चंद्रमाएँ
आंखों का अंधा होना
यह खगोलीय प्रक्रिया मात्र घटना है
डिजिटल क्रांति की उपज
आदमी की सांसे हैं
रोटी में कीड़े का होना
पीठ पर
एक आदमी का आकस्मिक दुर्घटना है।
शीर्षक :- वसीयत
नये पीढ़ी को वसीयतनामा का अनुवाद पर लिखा गया सततपोषणीय विकास पर
नदियों किनारे किसी सर्पाकार फण पर ज्वार-भाटा का आना
कोई आकस्मिक परिघटना नहीं है जैसे तुम्हारा आना
तुम वहीं पीढ़ी हो
जिसने बाईसवीं सदी में इतिहास के पन्नों पर
स्वर्णिम अक्षरों में लिखी जायेगी
साहित्य स्मारक पर स्मृतियों के लालटेन से धुआं का उठना
यह क्रांति होगी जिसके पूजारी होंगे
घर के होनहार लड़का
जिसके समाधि स्थल पर लिखा हुआ मिलेगा
”अमर जवान” की शब्दावली
मानो गंग में मन एकाग्रता का होना बस संयोग मात्र है
जिसकी वास्तविक परिचय पर तुम लिखना
इस अमर होने की परिभाषाओं पर
नये पीढ़ी पर उगा हुआ दुपहरी के
मध्यान्ह प्रहर
जिसके अनुवाद पर मेरे के बाद
पांचवें पीढ़ियों के लिए
इस वसीयत रिजर्व पर तुम्हारा किया हुआ
हस्ताक्षर प्रमाणिक है यह आकाश का आकार का होना
जिसके अमर ज्योति के लौ का नहीं जलना
जिसे अभी अभी सर्प डंसा है , जीवन मात्र नहीं बचना
पर उसकी परिभाषा तर्क-वितर्क करने को कटघरे में खड़े हैं
इस वसीयतनामा का अनुवाद होना बाईसवीं सदी की क्रांति है