VARUN SINGH GAUTAM KI KAVITA

शीर्षक:- मौन
जैसे, तुम्हारा टूटना
पतझड़ में सूखी पत्तियों का ढ़ेर
पके बाल, सफ़ेद, स्थूलकाय का होना
आदमी हैं। यह टूटना
याद दिलाता मशक्कत करता
किसान
मेढ़ पर बैठा उम्मीद।
जहाँ-तहाँ आम के डालियों में
मंज़री आना
शादी का लगन भी है, सुनाई दे रही है
निमंत्रण नहीं है इसलिए मैं तुम्हें पढ़ता हूँ कविता { शमशेर बहादुर सिंह की कविता :- शीर्षक ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ कविता }
पर मैं चुप हूँ, चुप रहना ही मेरा परिचय है। टूटना।
स्नातक पूर्ण होने को तीन महिने बचे हैं, दस रोज़ के एक दिन बाद भी इम्तिहान है, इसलिए यहाँ हूँ
तीन दिवसीय स्पंदन कार्यक्रम यहाँ हो रहें हैं। सभी में वसंत हैं।
पर मैं टूट रहा हूँ…।
मेरा परिचय टूटना है
काशी का होना
बिड़ला ‘अ’ हॉस्टल की 135 रूम नंबर की चारदीवारी
मुझे कौंध रही है, डरा रही है
खौफनाक है, कल का नोटिफिकेशन देता है
पर मैं तटस्थ हूँ
देव मिश्रा यहाँ नहीं है
सहपाठी प्रकाश मित्र भी यहाँ नहीं है
गया है किसी का जन्मदिन मनाने बिड़ला ‘अ’ चौराहे पर
पर मैं यहाँ हूँ
अपने रूम के चारदीवारियों में।
मुझे किसान होना अधिक प्रिय है
आदमी। टूटना। वसंत!
दो रोज़ पहले रात्रि चार बजे प्रांगण में पीपल के पास
तीन पिल्ले की मौत!
छटपटाहट। निस्तब्ध।
मौन।
जो कि मेरा प्रिय था।
शीर्षक :- टूटना
अज्ञात होना। मेरे नाम की
पांच खड़ी है
स्लेट पर लिखा ‘अ’
उस अक्षर पर बार-बार
चॉक रंगना
मतलब
क़व्वाली करना
इस ऊहापोह में हृदय का
टूटना
मानवीयता का हनन मात्र है।
आदमी नहीं
किन्तु
बड़े-बड़े ओहदे का
परिचारक होना ही सभ्य
होना है
मतलब
आदमी होना
क़व्वाली करना
अज्ञात!
शीर्षक :- विश्व आदिवासी दिवस पर विशेष
हमने बीने पत्तल जंगल के राहों में
कोई मारा पत्थर बीच बीच बाजारों में
चूल्हे के अंगीठियों में
हमने झोंके धुंध झिड़कियों में
बंद काले दबे कोठरी में
एक उम्मीद लिए बैठे हैं
कि मेरे भी स्वप्न सजेंगे एक
दिवस, बैठें हैं पक्षी, उड़े नहीं
सहमी हुई दर्द में जी रहीं
अपने अश्रुओं से आँखे पोंछ रही
देखा ही दिन क्षणिक ही….
देखते ही काली रात हो चली
नंगी है सड़कें, देह तो बची नहीं
मणिपुरी भर्त्सना में कलप रहे
दो टुकड़ियों जमीं पे हमें
दफ़न नहीं अपितु गाड़ रहें
सड़ी हुई आंत पे हमें अट्टालिका के
चकाचौंध में दबी हुई हमारी दास्तानें
मर गई अधजली तड़पते लाशों पे
ये चुटकुला नहीं, दर्द-ए-बयां है
कौन है रे अछूत अभागा मवेशी
नहीं, बेहया बहिष्कृत आदिवासी हूँ !
शीर्षक :- पुल (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष)
लड़की, औरत, महिला, स्त्री यह सब शब्द शब्दकोशों से निकालकर फेंक देनी चाहिए
जिससे जिसकी परिभाषा में लिखा था सृजन करना वह विवाहिता होने का प्रमाण दे रही है सुहागिन होना।
देह के स्थलाकृतियों में रेगिस्तान होना सिर्फ पुरुषों ने ही जाना है यदि हाँ है तो
ईश्वर का उपमान मासिक धर्म कहो तो
गर्भधारण और गर्भपात पर लिखी हुई कविता जिसका शीर्षक बड़े-बड़े, सुनहरे अक्षरों में ‘औरत’ होना है
जिस पर लिखा है ‘तुम बांझ नहीं हो।’
जिसके योनि से निकल उसके उभार स्तनों के दूध से
देह का खिलना,
उस देह पर बनी सभ्यताओं का होना
वहीं पुरुष तुम हो।
जिसको लक्ष्मण रेखाओं के दायीं छोर पर बलात्कारी होने को परिभाषित करता हुआ वहीं पुरुष दक्षिण छोर का आदमी है।
माँ-बहन की गालियों पर बना यह पुल उस बाजार की ओर जाता है जहाँ स्त्री देह की नीलामी होती है।
शायद तुम वहीं के हो ?
मैं पूछता हूँ तुमसे, तुम ब्रह्मांड के किस कोने से आये हो ?
जिस पर लिखा हुआ है शीघ्रपतन होना। जहाँ तहाँ।
शीर्षक :- बाईस वर्ष
मेरी हत्या होने के बाद
कवि लिखने लगे, उतरते हुये
चंद्रमा पर दिन का होना, कितना सार्थक है कि
नदियों के किनारे बेलों का फूटना!
इसके समानांतर__
मेरे पुराने घर की ओर
तुम्हारा लौटना।
इस देह का नहीं होना
मेरी हत्या का सुखद परिणाम है
जैसे माघ का लौटना
यह लौटना मतलब मेरा बोझ कम होना
मेरा देह का बहत्तर होना।
इस अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि पर मेरी
लाश पर कविता लिखना
उस पर बने शब्द
मेरा संघर्ष है, उकेरना
{ फूलों के गुच्छे मुरझाने के बाद फेंक दिये है }
वहीं उतार-चढ़ाव जीवन में
जिसका
हत्यारा तुम हो।
मेरी अनुपस्थिति है में तुम
भोर का चांद हो। दुपहरी।
दो दशक, दो वर्ष पहले, बाईस वर्ष
जिस पर लिखी गयी थी एक मरी हुई कविता! मैं!
शीर्षक :- यथार्थ से परे
यथार्थ से परे मेरी भाषा की देवनागरी
जिस अक्षरों में मेरा नाम है
उस पर घिरी हुई है तुम्हारी सभ्यताओं का होना
यह बोध हमें बनारस की वरूणा का होना
तुम्हारी अभिव्यक्ति है, तुम हो, मेरी भाषा है।
मेरी भाषा हिन्दी है
हिन्दी मतलब हिंदोस्तान की भाषा
सिन्धु की भाषा प्रयाग होना है
महाकुम्भ होना है
मेरी भाषा!
जिसका ‘ज्ञ’ अक्षर तुम हो
काशी होना।