VARUN SINGH GAUTAM KI KAVITA

शीर्षक:- प्रेम की संज्ञा तुम थी
मैंने तुमको देखा जब जब
अपने संघर्षों के आगे
तेरी मान-मर्यादा, सादगी, समर्पण, रूप-गुण में
तुमसे कम था
किन्तु हाँ , मेरा प्रेम असीम था
ब्रह्माण्ड में सबसे सुन्दर की जो प्रतिमान है
उसकी संज्ञा तुम थी
इसलिए मैं तुमसे दूर था
क्योंकि सबकुछ में मैं तुमसे कम था
पर आज मैं नहीं हूँ
तुम्हारी प्रेम के दो घूंट के लिए
सौ वर्षों की प्रतीक्षा में
मेरा देह का पंचत्व में मिल जाना भी
सुकून देता है, तृप्ति देता है,
तुम्हारे लिए मैंने मोक्ष को भी ठुकरा दिया है
यदि सच जानोगी प्रिय तो तुम भी रो दोगी
आज भी
तुम्हारी तस्वीरों के कैनवासों में तुम्हें देखता हूँ तो
फिर फिर
अपने ख्वाबों के कैमरे में
तुम्हें अपनी स्मृतियों में समेटता हूँ
जब जब तुम फिर याद आती हो
तो मैं अपने
हृदय मन को टटोलता हूँ
पर मैं क्या बताऊं ?
मैं सदा ही रिक्तस्थान पाता हूँ
तेरी रिक्तता में मैं सदा
हर पल-पल, प्रतिक्षण
आंखें अनन्त है।
पर मेरी आत्मा आज भी
तुम्हारी रूह को हेर रही है
कहाँ हो प्रिय ?
कहीं भूलोक तो नहीं तो किस लोक में हो ?
आखिर ब्रह्माण्ड के किस कोने में हो!
आओ न।
शीर्षक :- रिक्तता
यह रिक्तता मुझमें
अवसाद भर देता है
पर मुझमें कोई सम्भावना नहीं है
सामर्थ्य नहीं, शक्ति नहीं है, साहस
अब होता नहीं
मेरी देह की मांसपेशियाँ जवाब दे गयी है
उतनी साँसें भी ऑक्सीजन भर नहीं है
इस अनुपस्थिति में दुनिया समेटने की जद्दोजहद में
कविता चुनूँ या प्रेम!
शीर्षक :- प्रश्नचिह्न
बहुत सारी सम्भावनाओं में,
मैं खड़ा प्रश्नचिह्न था, एक बड़ा-सा
चिह्न, बड़ा आकार लिए
कहते हैं लोग उसे उत्तर की तलाश थी
सड़क के ऊपर दौड़ती रफ़्तार में
गाडियाँ
सूर्य पृथ्वी की दूरी तय करती है!
इस बारम्बारता की प्रक्रिया में एक प्रकाश वर्ष में
तय की गई दूरियाँ
साहित्य, सभ्यताओं, आदिमानव से मनुष्य बनने की
धीमी-धीमी प्रक्रिया में
यह कोई आकस्मिक घटना नहीं
साधना है सम्भावनाओं की
जो सारे प्रश्नों का जवाब समेटते हुये
पूर्णविराम के साथ उत्तर देती है
सिर्फ पूर्णविराम… चलती हुई प्रक्रिया।
शीर्षक :- नानी और नानी गाँव
नदी बहती है मेरे नानी गाँव की
दाहिनी ओर
यह नदी गंगा की स्त्रोतवाहिनी है
यह सदाबहार है [ बारहमासी ]।
मुझे नदी से बहुत प्यार है
क्योंकि उम्र तेरह तक
नानी गाँव में रहा
बचपन इसी किनारे में पला।
मेरी नानी पहली माँ है
दूसरी मम्मी
नानी मुझे सभी से ज्यादा प्यार देती है
मैं उनको।
मेरी नानी अमरतरंगिनी ( गंगा )
महाकुंभ प्रयाग जैसी
मैं नानी गाँव की दाहिनी ओर
बहती नदी
यह मौसमी है [ प्रायद्वीपीय ]।
शीर्षक :- नोटिफिकेशन
तुम्हें नोटिफिकेशन की तहकीकात करना चाहिए कि
भाषा का आ-अक्षर
साहित्य में ज्ञ से शुरू होता है! यह सोचनीय है।
सम्पूर्ण वर्णमालाओं का इतिहास जानते हो तो कहो
देवनागरी किसकी लिपि में रचता है, किसलिए
आ से आदमी
वह आदमी जिसे आदिमानव कहते हैं
वे कहाँ हैं! किसी झोपड़ीपट्टी के भीत पर
अ-अक्षर का उखेड़ना
आखिर क्या बनायेगी ? यह पर्वत, पहाड़, नदियाँ,
सागर जो सजाते हैं प्रकृति के उड़न खटोला को
वह अभी वर्तमान की आदिवासी हैं!
जो गगनचुम्बती है, जिसकी सभ्यता
उसके भाग का टेक्नोलॉजी कहाँ सो रही है!
जिसका परिभाषा जो आदमी को सभ्य बनाता है
जिसका सभ्य होने का परिणाम आदमी होना है
क्या वहीं तुम कवि हो ?
जिसे इस भाग का नोटिफिकेशन मिले हैं!
शीर्षक :- झंझावात
मेरी देह की झंझावातों से
ओह! इस ऊहापोह में न जाने क्यों
भावनाएँ अशून्य की स्थिति में
असह्य, द्रवित, अश्रुभरी।
इस देह का मन बार बार कचोटना
तुम्हारी याद दिलाती है
कि तुम तो
मेरी देह हो!
“राम राम सत्य है” का उच्चार
ठठरी पर पड़ा
अपनों के चार कंधों पर
श्मशान में पहुंचा
मेरी देह का मुरदा होना
हो रहा है दाह-संस्कार!
{ इतना ही लिखते ही कवि का कलम हाथ से गिर गया }
क्या तुम वहीं देह थे
जो पर देह से न हो सकी
[ हेट्रोसेक्सुआलिटी! ]