कल्पित हूँ

By- VARUN SINGH GAUTAM

काल समय के चक्र में अम्बर
नव्य शैशव या कितने हुए वीरान
असभ्य सभ्य की संस्कृति में
नवागन्तुक जीवन चेतना धरोहर

इब्तिदा सभ्यता प्रणयन भूमि
तिलिस्मी संस्कृतियाँ अपृक्त सङ्गम
शैवाल मीन आदम मानव
शनैः – शनैः जीवों का विस्तरण

बढ़ती मर्दुम शुमारी तुहिनांशु
हरीतिमा जीवन पड़ रही कङ्काल
विलुप्ति कगार बढ़ चलें अकाल
बञ्जर समर में अनून कल विकल

विष दंश रश्मि अश्मन्त
व्यथा पड़ी घूँटन में क्या प्रचण्ड ?
कँपी – कँपी धरा में रुग्णता क्यों ?
मुफ़लिस दोष का क्यों कलङ्क ?

विवश पड़ी , कल्पित हूँ , क्षणभङ्गुर में
ज्वाला व्यथित वात्सल्य बोझ ज़बह
दुर्भिक्ष से विकराल ख़ञ्जर में क्षुरिका
निर्ममता अनुशय मशक्कत तनाव

यह कविता मँझधार पुस्तक से वरुण सिंह गौतम की स्वंयकृति है।

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