By- VARUN SINGH GAUTAM
१. चल दिया लौट इस तस्वीर से बन्धु
इस दिव्य ज्योति – सी चमक अब नहीं
आया था नव्य कलित बनके इस भव में
पर , कोई पूछा भी नहीं , पहचान कैसे ?
२. तेरी दर पै भी गया था , एक वक्त किन्तु
दर – दर भटका , फिर भी सोचा चलूँ एकबार
उस दर जिस दर में तुम – सी दिवानगी हो
खोजा , फिर भी तुम – सा न मिला सखी कोई
३. ले चलूँ , तुम भी क्या सोचेगी इस जमीं से ?
यहाँ धूप – यामिनी , पानी – पत्थर का पैग़ाम नहीं
बढ़ – बढ़ चल , उस शिखर तक जहाँ रस – बून्द निकर
लौटें नभ से वों ख़ग जो क्षितिज से दे रहे थे निमंत्रण
४. देखा , किसी वक्त इतिहास रचते धूल को भी
स्वेद भी था , संघर्ष भी उस धरा धार का
जीवन – जीवन में प्रस्तर भी देखा , कौन इसे हटाया ?
चल तू भी , ये तो महक है कंटीली फूलों के सदा
५. पंख खग के उड़ते – उड़ते अम्बर के कोने में पड़ा
बिखरा , जैसे हो वो अकेला सदा हरपल
देखा था वसंत भी , इसका कभी एक वक्त
पर आज ये फिर अकेला , सुनसान क्यों चला ?
६. एक किरण लौटती प्रतिबिम्ब – सी , तरणि से जगा क्या है ?
यह किस ओर ज्योति , पर ठहराव मिला कहाँ है ?
मिलें यह उस किरणों से , जिस किरणों में था सतरंग
ख़ुद को विलिन कर दें , कौन , क्यों पूछें जहाँ ?
७. सरिता के किनारों में देखो क्या छुपा ?
मै तो खोजता आया , पर न मिला कोई
धारा धार में देखा , पानी की कंचन घट में भी
परन्तु वो भी कहाँ , किस रन्ध्र में जाकर छुपा ?
८. अग्निपथ किस पन्थ के , ज्वाल में छिपा किस अंगार ?
जल – जल कर ख़ुद बनी ख़ाक , पूछें कौन हज़ार ?
इस मोह – माया के चितवन में , देता कौन साथ !
जग उठी है पूर्व की किरणे , फिर रचेगी वो तस्वीर ।
९. दिवाना का बेला यहाँ , मरघट का भी सहारा किसका
देता कौन यहाँ पैगाम , रहता सब कुछ यहाँ अनजान !
प्रस्फुटित कली भी देखा , रहता क्षणिक वों महफिल
प्याला भी न मिला किसी को , देता फिर कौन यहाँ ज्ञान ?
१०. क्षणप्रभा भी जगी , कभी उस अशेष कोने में एकबार
उज्ज्वलित – प्रज्वलित हो भी आँगन , फिर भी दे कौन प्याला ?
एक घड़ी या दो घड़ी , पर मिलती कहाँ निर्झर प्यारा ?
देते उसे प्रचंड भी अपना , मिलते नहीं फिर भी स्वच्छन्द अपना
११. राह के काँटे भी दिखे , चुभती मगर वो भी सौ बार
एक नहीं , दो नहीं , वो भी मिलें सौ , हजार , बारम्बार
पर देता कहाँ , फिर भी एक संकेत , धरा भी विश्व का हो जाल
नग भी ऊँचे – ऊँचे दिगम्बर , पर देता कौन , कौन – सी सार ?
१२. यह रहस्य भी कितना पुराना , प्राचीन हो या आद्य काल
अणु बना , पृथ्वी भी , अब ये कौन ये चल चित्र सभा ?
सिन्धु गयी , भग्नावशेष – सी खंडहर में कौन है खड़ा ?
हर काल देखा , किन्तु यह काल कौन है , विष उपदंश कहाँ ?
१३. बेला भी लौट रही थी पीछे कभी , पर से स्वं को पाया
इस तंत्र में क्या रखा , औपनिवेशिक से स्वदेश पला
यह दर्प क्या भला , अशोक को भी समर्पण करते देखा
कौन जान इस इति का , कितना रक्तरंजित हुआ संसार !
१४. रक्त – हृदय का मेल नहीं , है यहाँ किसका महोच्चार ?
मेल न , अनमेल सुरा , दे वसन्त को मधुर ज्ञान
भेद – भेद में अशेष रहा , स्वर ज्योति का फूल खिला !
पवन भी चाहा मात दे , अशून्य शून्य में जा छिपा !
१५. यह कलियाँ देखो कैसे खिला , क्या शशि प्रभा का राग ?
मधुकर भी गयी इस कलियाँ के पास अमियतत्व लिए
भंग – भंग हुई , बँधे स्वयं , नव्य को पूछें कौन यहाँ ?
मिट गयी भव इसका , दे फिर कौन सिंचित तत्व इसे ?
१६. विष व्याल के मैत्रीपूर्ण या उसी का जीवन निर्वाण
रक्षक , भक्षक स्वयं के , उगलकर पुनः करें इसे अर्पण
रन्ध्र में वसन्त नहीं अब , पतझड़ हो जैसे अपूर्ण पलक
पग – पग दे स्वर झंकृत लय , हो किस महोच्चार ?
१७. सपने बिखेर कर कौन , लयबद्ध गीत / छन्द लिखेगा ?
राहें मोड़ न दे , यह हुँकार किस गति के उच्चार चला ?
तू लें चल , लिख कविता बढ़ चल असीम किरणों तक
शशि भानु भी वैकल्प में , कैसी इसकी अनंत्य ऊर्ध्वंग उड़ान ?
१८. यह अर्थ किस ओर चली , अक्षुण्ण या क्षुण्ण में कहो
स्वप्निल में बँधे उर , यह गुंजन कहाँ झंकृत झर के ?
देखता महफिल भी , वो जवान के जवान हैं अब तो ये भी गर्भमोचन
फैलता विष तैर – तैर कर , हो रहा विष विषण विकराल , हाहाकार
१९. द्वन्द युद्ध छिड़ रहा देखा तो पाया वो सहोदर यमल
धोखे का खिलवाड़ पला , व्यथाएँ करूण कहानी में जगा
कलश यात्रा मरघट के , पूजा – पात्र भी भर रही आहें – विछोह
तप रही धड़कन प्रसू की , ममता अश्रु रोदन में धिक्कार
२०. ईट के अट्टालिका खड़ा , लम्बे – लम्बे तोड़े तोरण द्वार
भू छिपा एक आँगन सजाने , कौन करें अब जग पाल ?
लताएँ सूखे , पवने किस सौगंध में , यह अबोध फिर क्यों खड़ा ?
तड़पन में बुभुक्षा देखा , रईस जाता पुर के प्रीति सजाने
२१. सिद्धान्त मिटी , सौन्दर्य वामा के , क्यों शंहशाह बढ़ चलें अल्फाज़
प्रधर्ष लिए दुनियाँ झुके , स्वाद भी फीका या मधुर संज्ञान
इस कोलाहल भरी गस्ती में , मैं किस कुसुम – सी कली रहा ?
तिमिर वन के उर में , मैं ज्योति – सी बिखरा नहीं प्रातः के
२२. ले चली अंतिम बेला मरघट के , बीती काल , करें कौन याद ?
जब रही मलय वात से , दिया दूषित कण , अश्रु धार चक्षु से
प्रेम कोमल कली पुष्प जैसी , मिलती नहीं किसी को मूल्य में
मैंने देखा , मिला उसे ही , जिसे मान – मर्यादा नवाचार का नहीं खिलवाड़
२३. कोलाहल भी देखा , कलह भी , फिर यह संताप किस घूँटन में ?
रत्ती भर स्वर जगा कहीं , काहे मनु छुपा लेते उर में कहीं
रेत भी बिखरा कण – कण के , धार इसके गिरे किस ओर ?
हृदय भंजित रागिनी की , कर दे महिमामंडित भग्न सौन्दर्य के
२४. वतन – वतन को देखा संस्कृति – धर्म – इति बखान करते सदैव
चितवन लुटा रक्तवाहिनी भेद कर , गर्व करें क्यों संसार ?
भू क्रन्दन आँशू बनके तुहिन नहीं , है किसका जग प्रहार ?
विपिन स्वयं लगा उजड़ने , यह दैत्य या विश्व प्रचण्ड महाकाल
२५. यह अखाड़ा किस मानों , शबनम या उपवन के तलैया में
राष्ट्रभक्त शूल के समर्पण में , लूटेरे सदा उतारने लगे लिबास
चीर – कुसुम नहीं देता कोई , मिलता यहाँ शप्त कँटीली – स्वेद के सर
सुखी वो ही अंग- भंग वदन वात में , दिया कौन यह सर्वनाश ?
२६. कहर बरस उठी उर में , बीत जानें कौन दिवस – दिवस के क्षण
चल रही कौतुक भरा ज़माने से दुर्दिन में भटका इस दर तो उस दर
यह जमीं तोहफ़ा नहीं , वदन चित्र – सी देखा , पला में मरघट में
पंचभूत भी चाहा छू लूँ मैं बुलन्दी को , पर कहाँ खग भी जा चुकी घर से ?
२७. छटाएँ बिखरी भू पर , यह भेद – भेद कौन गला रहा घट – घट के ?
झूम – झूम झूमके गिरे आँशू क्षितिज से तिरछे से , क्या वेदना या मोद धार ?
झूमती लताएँ शाखा , आहट दे किसका , यह दृश्य देखें कौन – कौन ?
यह भी चाँदनी लौट चली , अब बरसे नहीं , फिर ढूँढ़ो वो पल , किस अफ़सोस
२८. छन्द – छन्द के शब्दो में कविता का गान कौन कर रहा ?
आ रस भावों अलंकारों को छेद , कौन निर्मल भव बह रहा ?
वर्ण शब्द के जंजाल से था स्वच्छन्द , शब्द – शब्द में फिर कौन फँसा ?
चल दिया कवित्त भी स्वं के तलाशने शून्य से अशून्य के उच्चार
२९. नजर में किसकी नयन छुपी , दुनिया तत्व में क्या सौन्दर्य सजाने ?
वनिता प्रेम करुणा – सी , मिला ममत्व सृजन लय में यह रस का संचार जैसे
मानो ध्वनि पंचम् या सप्तम् स्वर पिक के या पद्माक्षी सृजनहार
पुहुप गऊ देवपगा विपुल करें कल – कल कलित सप्त – सप्त सप्तम्
३०. खोजते स्वप्न मंजिल भी दूर नहीं , ख़ग दिन ऋतु मिट्टी भी दे निमंत्रण
ये पा चढ़ाई कर दें शिखरो तक , जो ऊँचे – ऊँचे ऊर्ध्वंग अनन्त भला
जिस पग सिढ़ी चढ़ – उतर फिर चढ़ निरन्तर, फिर ढूँढ़ो वो महाज्ञान
यदि न मिले , मत हार , जरा रुक , फिर छू दे वो ऊँचे नग मार्तण्ड
३१. जग हार , दिवानी चल पड़ी , कितने ठोकर खाने के बाद पा सका
परन्तु मैं चला, थक हार बैठ गया दहलीज पर , दे कौन कुर्बानी
राह – राह में प्रस्तर देखा , डर – सहमकर किसी रन्ध्र में फिर छिपा जा
शशि – सी कौन कहें अमावस्या या पूर्णिमा , चार चाँदनी फिर स्याही रात
३२. छोटी – सी किरणें जगी देखो किस कोने में , ढूँढ़ो , झपटो , न मिलें फिर ढूँढ़ो
स्वप्निल भी लघु , वो मत्त न तो स्वप्न – स्वप्न को दे ठुकरा / ललकार
स्वेद जब न तन में , करवटें बदलो , नव्य वेग से चढ़ जा उन शिखरों तक
न तो मरघट कर लो याद , यह पटल में विष उपदंश बिखराव , यह असह्य
३३. चंद्रोदय , सूर्योदय देखा , यह ब्रह्म मुहूर्त या अन्तिम गोधूलि बेला
चाँदनी आभा किस महफ़िल में , मैंने देखा सान्ध्य के धरोहरों में
बढ़ – बढ़ तिरते पन्थ भी पग भी पंक में , यह किस बन्धन में जा बँधे
यह निरन्तर चलें , परन्तु स्वं का क्या बताऊँ स्वछन्द हूँ तब न ?
३४. यह क्या कागज के पन्नें है , जो आज है कल नहीं ?
चिन्ह् भी उखेड़ दी , स्वप्न भी बिखरी किसकी धूल में ?
यह तो मिट गयी दीपक की लौ की तरह , बूझ भी गयी
दीप्तिमान् या मुरझाई वसन्त है पिक का या पतझड़ भला
३५. पलकें भी नयन के ऊँघ – ऊँघ , क्या भर रही है या अश्रु गिरे धार ?
जमाना रूठा या दिल का एक ख़्वाब टूटा , यह बिछा रहा कौन ?
मोहब्बत आलिंगन के तरस रहें , यह चितवन तो महफ़िल में सज रही
कूच – कीस के हरण ले पर , पर भी देती कहाँ चितवन का निमंत्रण
३६. लूट रहा दामन , कान्ति भी फीकी , यह वामा भृत्य या लास्या
कौतुक – कौतुक नव्य खलक चढ़ – चढ़ जा विष व्याल बिखेर रही
एक तीर दूर से चुभी , यह कलह कोलाहल हाहाकार प्रलय प्रचण्ड
निक्षण के ईहा प्रबल उर के विकनता , यह विह्वलता करें देखें कौन ?
३७. यह बून्द ऊपर से प्रशस्त है यह फिर प्रश्न चिन्ह् कैसा ?
गिर भू पर अस्तित्व मिटी यह गिरे अमृत पुष्प या कंटीली पंक के
पर पै खिला प्रसन्नचित्त तत्व देखें अश्रुपूर्ण धार देते कौन दिवस ?
झंझा भी कहर उठती झंकृत नहीं ये भी देखें किसका राह ?
३८. मरघट में कौन – सी दिव्य ज्योति जाग्रति शिखर प्रचंड है ?
मैं जा ही रही थी भव से पार कौतुक चढ़ा किन महफ़िल के !
त्वरित कुम्भीपाक या दिवान यह निर्णय करें यहाँ कौन !
दिवस – दिवस बीते हरपल यह धार चलें उन्मुख महफ़िल मरघट के
३९. दिवाना चला राह खोजते – खोजते जा फंसा फिर अग्रे प्रशस्त
देखो क्या लड़ी एक या विविध पड़ा , कण्ठ – कण्ठ के तोड़े क्यों चाल / लय ?
इस अवशेष अशेष नहीं शुक्तिज देखा चंचल भरी उस धार के
लघु / वृहत् विषम प्रतिवादी है सम – विषम सरल है या तिर्यक् रेखा
४०. कदाचित् सृष्टि सान्ध्य स्तुति में लय या भोर स्वप्निल निमंत्रण विस्तृत क्यों ?
क्रन्दन श्रीयुत् श्रीहीन सहज किस संगत संत सात्त्विक या तामसिक चला ?
यह असार विरह व्यर्थ भला देखें फिर वो अकर्मण्य वाग्मी प्रातः या तिमिर में गया
निष्प्राण भव जीवत्व प्रत्यक्षतः या परोक्षतः यह रुग्ण में भृत्य अंतिम में क्यों पड़ा ?
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