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विद्या नन्द कुशवाहा “श्रीहर्ष” जी की कविता

शीर्षक:- कुशध्वजक वंसजा हम”
मिट्ठि ज’ उगइ अमृत रेता,
तहि धरनि हमार जनक देता।
हल सँग जोतलौं सुरसर धारा,
सीतक लाज — हमर परिवारा।
कुशध्वज राजक पुत्त सुतनि,
धरणि जनकक रेख जतनि।
मोरिय, शाक्य, सैनि कुल धारा,
बिंबिसारक छवि अपारा।
बुद्धक वचन सुभग मुँह गुँजि,
अशोकक धम्म धरनि पर पूजि।
धानक गंध, जौक लहरा,
गामक मन सदा सुभरा।
छतिरि जोति नयन स’ झलके,
माटिक देह सोन बनलके।
हम कृषक, हम राजवंश,
मिट्ठि स’ उठल हमर अंश।
कह धरनि, “ए बंस कुशध्वजक,
तोहर लहू अजहुँ न बुझक।
सीताक मान, जनकक धरम,
तोर नाभिमे अइछ अमर गरम।”
शीर्षक:- गाम केर स्वर
हमरा गाममे सभ कहलक —
“ई छोरा तऽ सबसँ पैघ हय।”
जखन अपन बात रखलौं,
सभ हमरा ऊपर दोष देल गइल।
हमर कहबाक चाहि —
ई सब परंपरा मात्र नहि,
एक उत्कृष्ट सामाजिक व्यवहार हय,
जे आज धरि नहि बदलल।
हम चाहलौं सम्मान देबा लेल —
यूपी के भईया केँ,
जखन बौद्ध आ जैन धर्म
मिथिला सँ फूटल प्रकाश ऐका
सभ दिशि मचल सत्य आ करुणा।
जन्म आ मृत्यु शिक्षा लेल—
ए दुनू सत्य अटल हय,
जेना अटल हय मैथिली,
इतिहास के गाथामे —
मगध सँ मिथिला धरि सजल,
जहाँ “क्या तुअ काया तुहारि”
एखन धरि पाण्डुलिपि बनेल रहए।
भारत अनेक स्थानक मेल हय,
मुदा जन्म मिथिला के भाइय—
भोजपुरी, अवधी, ब्रज सब
एहि भूमि सँ निकसल बोली हय।
भव्य विशाला — ई धरती धारा
भारतक आत्मा के टापू हय।
मुगल अत्याचार इयाद करऽ तुअ,
भारत आ भारती भेद—
बंगाली, मैथिल, आ हिन्दुस्तानी कहैए हअ।
कने सुनऽ तऽ तहरा मैथिलीमे गाली बहुते,
बंगालक हत्यारा शासक कियै नाय जीतल?
किएक तऽ मिथिला अपन धर्म सँ,
आपन मातृसंस्कार सँ अटल रहल मैथिलीमय ।
“हे गर्व सँ कहियो —
हम हिन्दुस्तानी बाबू बबुनी !”
किएक तऽ सनातन शिक्षा
मुसलमानक धरम नहि,
ई सोच हय सबटा—
एक भक्ति, एक आत्मा, एक प्रेमकी।
भक्ति आंदोलनक जन्म मिथिलामें भइल,
शिव अवतारक पाछाँ जगधम्मे
धरती आकाश धरि प्रेम भरल।
गामक ठेठ बोलीमे —
भगवतीक आचरमे जगदम्बा जागल।
मुदा विरोध भेटल —
मिथिला के वाह छौ आ सौ भइया!
का मिथिला सम्मान नहि दुनियाक लेल?
अपने लोक जे अन्याय कएलहुँ,
ताहि सँ हम पीड़ित छी आ ही ।
हम सोचैत रहि —
गरीब, जाति या कुल नहि,
मिथिले जन्म हमर अभिमान हय।
नारी — हम मौन रहेब जंगदमा,
मुदा ई मौन कमजोरी नहि,
ओ आत्मसंयम हय,
मन्दारक स्मृति समान पछिला।
सभ स्वाहा भऽ गइल सबटा —
भव, अर्थ, संस्कृत, रामायणक अर्थमे।
का विदेह आ का कोशल —
ई दुनू भारतीक आत्मा हय।
हिन्दी बोलू मैथिलीमे,
ई दुनू भारतक दुई शिखर हय।
सभ ठेठ बोली संस्कृत सहो—
हिन्दुस्तानक आत्मा हय।
तामिल सँ मैथिली धरि —
सभ एक सुरमे बजैत अछि —
“जय जननी मैथिली!”
जन्मे तोहर मैथिली
शीर्षक:- दिनकर के गाम
हमर गामक पथरे सँ, धूल उड़ैत रहैए —
ओहि धूलमे चमकैत हल दिनकरक नाम।
“रे किसानक बेटा, धरतीक रक्षक तूँ” —
ई आवाज गूंजल रहैए माटि आ मनोक संग।
दिनकरक गाम — ई कोई ठाम नहि,
ई तऽ भारतक अस्मिता हय,
जेना जोतल खेत पसीना सँ उठल कविता,
जेना माटिक गंध सँ जनमल शब्द — “राष्ट्र, रक्ति आ राजधर्म”।
गामक पोखरा लग, बूढ़ी माई कहैए —
“ओ दिनकर तँ हमरा बेटा ऐकाँ रहल ।”
कवितामे जे आगि रहल— ओ ओकर मनोक तपस्या हय।
सूरूजक जेकाँ प्रखर, मुदा करुणामे कोमल —
ओहि लेल तऽ कहल गयल — “रश्मिरथी भारतक सूर्य”।
मगध सँ मिथिला धरि जे जोतल खेत,
ओहि खेतक हल सँ उगैत रहैए शब्द अंकुर।
दिनकरक गाममे सागर नहि,
मुदा ओतऽ प्रेमक नदिया बहैत रहैए।
गामक लोक — सादा पर विचार गामक धानक समान,
जेकर गंध सगरो देशमे फइलल।
ओ कहैए—
“भूख लगै तऽ खेत जोत, पर आत्मा नहि बेच।”
ई ओहि धरतीक उपदेश हय,
जे मिथिला आ मगधक बीच मध्य जन्मल —
जेठक सूरीजक समान तेज,
मगर बरखा जेकाँ शीतल।
दिनकरक गाममे
भक्ति आ क्रांति दुनू साथे चलैए,
जहाँ गीत बनै — हलक आवाज पर,
आ कविता जन्म लैत — खेतक हियास सँ।
ओहि गाममे आजो
बालक पाठशाला जायत,
आ माई अपन लोर सँ कहैए —
“पढ़ बेटा, देशक दिनकर बनि जाए।”
भारत जे आज बुझैए —
“शब्द सँ राष्ट्र बनैत हय,”
ओकरे मूल ई गाम हय —
दिनकरक गाम,
जहाँ कवि नहि,
भारत अपन आत्मा जनम देलक।
शीर्षक:- न रहै झूठा
हिअ गेल, चएन गेल —
दऽ गेला झुनझुना।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
सिंगापुर गेला, विलायती भेला,
कलुआ बरद जेना फुला।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
रात गेल, दिन गेल —
टुगर अध्यज्ञानी छै मुल्ला।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
नाप गेल, ताक गेल —
पाँब माटि तअर छाप गेल।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
लाज गेल, ताज गेल —
जीबैत जिनगी मारि गेल।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
जप गेल, तप गेल —
डायैन कहै, लोक मारे कुल्हा।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
सिंघेश्वर गेलौं, हलेश्वर गेलौं —
राधा-रानी बनल होइ जेना गुड्डा।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
शीर्षक:- अब लौटन न करूँगा मैं
अब लौटन न करूँगा मैं,
ज़िन्दगी के तअय्युन सब शिकस्ता हो गये।
हर सिम्त से टिस उठी है,
अश्क-ए-दिल आँचल-ए-उम्मी में गिरा है।
कई रोज़ से ग़मज़दा हूँ,
ना जाने कुँ कहाँ तक सफ़र करूँ।
ए ख़ुदावन्द, बख़्श दे मुझे राहत,
अब लौटन न करूँगा मैं।
काशी ब-सूरत वीरान है,
क्या तूं भी हिजरत कर गया,
ऐ जगीश्वर, तूं जो फ़रमाया था —
“मैं रहूँगा यहीं, हमेशा के वास्ते।”
क्या मेरे सआदत में कमी थी,
क्या मेरे आँसूओं ने तेरा दामन न भीगोया?
कबसे तू ख़फ़ा है मुझसे,
कहाँ जाऊँ — अब लौटन न करूँगा मैं।
अब मुझे कोई तमन्ना नहीं,
राह में गुल मत बिछाना।
आरज़ू को अब क्या तौलूँ,
ज़िन्दगी अनमोल है — ये किसने कहा?
झरनों की सरगोशी, फूलों की बू
दिल को तिश्ना करती है।
ऐसा लगता है — ज़माना मेरे खिलाफ़ ज़ुल्म ढा रहा है।
शायद मैं ही बदनसीब हूँ,
गंगा माँ भी मेरे वास्ते न उतरेगी।
क्या मैं तेरा फ़र्ज़न्द नहीं? कहाँ जाऊँ?
अब लौटन न करूँगा मैं।
इनका नाम विद्या नन्द कुशवाहा”श्रीहर्ष” है। इनका जन्म 1996 (ईस्वी) को हुआ था। ये केदार कुशवाहा एवं बुच्ची देवी(माता-पिता) की संतान हैं। ये बिहार के निवासी हैं। इन्होंने मिथिला विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान में स्नातकोत्तर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की हैं। ये 12 वर्षों से लिख रहे हैं। इन्होंने अपनी पहली रचना का सृजन 2013 (ईस्वी) में किया था। ये अब तक 1800 रचनाओं का सृजन कर चुके हैं। इनके अनुसार लेखन एक एक आत्मानुभूति की पुकार है । ये एक पेशे से एक कर्मचारी हैं। इनका मानना है कि “कविता शब्दों की नहीं, संवेदना की साधना है” । इनके/इनकी मनपसंद रचनाकार/ लेखक/लेखिका /कवि/कवयित्री /उपन्यासकार/कथाकार विद्यापति,केशवदास और जोतिस्वर ठाकुर हैं। इनकी मनपसंद पुस्तिका/उपन्यास विद्या विद्यापति पदावली हैं। इन्हें दर्शन, इतिहास व लोककथा पाठन की रुचि की विधा पढ़ना अत्यंत पसंद हैं। इन्हें कविता, नाटक, गीत एवं गद्य विधा में लिखना पसंद हैं। ये मैथिली, संस्कृत व तामिल भाषा में रचनाओं का सृजन करते हैं। इनके द्वारा सृजन की हुई इनकी मनपसंद रचना प्रिये, ओहि देस चलियौ” हैं। ये अब तक 15 कवि सम्मेलन में जुड़कर उसकी शोभा व गरिमा बढ़ा चुकी/चुके हैं। ये इजोत,विद्यापति परिषद,बंगाली भाषा संस्थान,कोलकाता एवं सांस्कृतिक संवाद मंच से जुड़े हुए हैं। ये अब तक 5 साझा संकलन/संकलनों/पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इन्हें अब तक 6 सम्मान व 3 पुरस्कार प्राप्त हो चुकी हैं। अब तक इनकी 2 एकल पुस्तिका/पुस्तिकाएँ प्रकाशित हो चुका हैं।

