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विद्या नन्द कुशवाहा “श्रीहर्ष” जी की कविता

शीर्षक:- न रहै झूठा
हिअ गेल, चएन गेल —
दऽ गेला झुनझुना।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
सिंगापुर गेला, विलायती भेला,
कलुआ बरद जेना फुला।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
रात गेल, दिन गेल —
टुगर अध्यज्ञानी छै मुल्ला।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
नाप गेल, ताक गेल —
पाँब माटि तअर छाप गेल।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
लाज गेल, ताज गेल —
जीबैत जिनगी मारि गेल।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
जप गेल, तप गेल —
डायैन कहै, लोक मारे कुल्हा।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
सिंघेश्वर गेलौं, हलेश्वर गेलौं —
राधा-रानी बनल होइ जेना गुड्डा।
हे सखि, पिया नैय ऐला —
न रहै झूठा!
शीर्षक:- अब लौटन न करूँगा मैं
अब लौटन न करूँगा मैं,
ज़िन्दगी के तअय्युन सब शिकस्ता हो गये।
हर सिम्त से टिस उठी है,
अश्क-ए-दिल आँचल-ए-उम्मी में गिरा है।
कई रोज़ से ग़मज़दा हूँ,
ना जाने कुँ कहाँ तक सफ़र करूँ।
ए ख़ुदावन्द, बख़्श दे मुझे राहत,
अब लौटन न करूँगा मैं।
काशी ब-सूरत वीरान है,
क्या तूं भी हिजरत कर गया,
ऐ जगीश्वर, तूं जो फ़रमाया था —
“मैं रहूँगा यहीं, हमेशा के वास्ते।”
क्या मेरे सआदत में कमी थी,
क्या मेरे आँसूओं ने तेरा दामन न भीगोया?
कबसे तू ख़फ़ा है मुझसे,
कहाँ जाऊँ — अब लौटन न करूँगा मैं।
अब मुझे कोई तमन्ना नहीं,
राह में गुल मत बिछाना।
आरज़ू को अब क्या तौलूँ,
ज़िन्दगी अनमोल है — ये किसने कहा?
झरनों की सरगोशी, फूलों की बू
दिल को तिश्ना करती है।
ऐसा लगता है — ज़माना मेरे खिलाफ़ ज़ुल्म ढा रहा है।
शायद मैं ही बदनसीब हूँ,
गंगा माँ भी मेरे वास्ते न उतरेगी।
क्या मैं तेरा फ़र्ज़न्द नहीं? कहाँ जाऊँ?
अब लौटन न करूँगा मैं।
इनका नाम विद्या नन्द कुशवाहा”श्रीहर्ष” है। इनका जन्म 1996 (ईस्वी) को हुआ था। ये केदार कुशवाहा एवं बुच्ची देवी(माता-पिता) की संतान हैं। ये बिहार के निवासी हैं। इन्होंने मिथिला विश्वविद्यालय से वनस्पति विज्ञान में स्नातकोत्तर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की हैं। ये 12 वर्षों से लिख रहे हैं। इन्होंने अपनी पहली रचना का सृजन 2013 (ईस्वी) में किया था। ये अब तक 1800 रचनाओं का सृजन कर चुके हैं। इनके अनुसार लेखन एक एक आत्मानुभूति की पुकार है । ये एक पेशे से एक कर्मचारी हैं। इनका मानना है कि “कविता शब्दों की नहीं, संवेदना की साधना है” । इनके/इनकी मनपसंद रचनाकार/ लेखक/लेखिका /कवि/कवयित्री /उपन्यासकार/कथाकार विद्यापति,केशवदास और जोतिस्वर ठाकुर हैं। इनकी मनपसंद पुस्तिका/उपन्यास विद्या विद्यापति पदावली हैं। इन्हें दर्शन, इतिहास व लोककथा पाठन की रुचि की विधा पढ़ना अत्यंत पसंद हैं। इन्हें कविता, नाटक, गीत एवं गद्य विधा में लिखना पसंद हैं। ये मैथिली, संस्कृत व तामिल भाषा में रचनाओं का सृजन करते हैं। इनके द्वारा सृजन की हुई इनकी मनपसंद रचना प्रिये, ओहि देस चलियौ” हैं। ये अब तक 15 कवि सम्मेलन में जुड़कर उसकी शोभा व गरिमा बढ़ा चुकी/चुके हैं। ये इजोत,विद्यापति परिषद,बंगाली भाषा संस्थान,कोलकाता एवं सांस्कृतिक संवाद मंच से जुड़े हुए हैं। ये अब तक 5 साझा संकलन/संकलनों/पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इन्हें अब तक 6 सम्मान व 3 पुरस्कार प्राप्त हो चुकी हैं। अब तक इनकी 2 एकल पुस्तिका/पुस्तिकाएँ प्रकाशित हो चुका हैं।