हमारी वेबसाइट “Science ka Mahakumbh” में आपका स्वागत है। यहां पर पुष्पा साहू मीरा जी की कविता प्रकाशित किया जाएगा। आप सभी इसका आनंद लीजियेगा।
PUSHPA SAHU KI KAVITA

शीर्षक:- रेडियो और तुम
हाँ…. तुम भी अब उस पुराने टूटे फूटे बेकार पड़े रेडियो की तरह हो गये हो, जिसे मैंने कभी बहुत शौक से खरीदा था | जो कभी मुझे मेरी हर एक चीज
से कहीं ज्यादा प्रिय हुआ करता था |
हाँ… बिल्कुल उसी तरह जिस तरह
तुम मेरे सबसे प्रिय हो गये थे।
उस बेकार पड़े रेडियो की तरह जिसे
ना तो फेकने का मन करता है,
ना कबाड़ में बेचने का और ना ही
अब वो किसी काम का है |
हाॅं… बिल्कुल उसी तरह अब तुम
भी हो गये हो |
जो किसी काम का नहीं है फिर भी ना छोड़ने का मन करता है, ना ब्लॉक करने का, ना ही तुम्हारा नंबर डिलीट करने का, ना तुम्हारी कोई भी आईडी डिलीट करने का । बस पड़े रहते हो तुम मेरे फोन के किसी कोने में चुपचाप शांत से।
व्हाट्सएप हो या फोन बुक में तुम्हारा नंबर बस पड़ा है मेरे फोन में बिल्कुल उसी टूटे फूटे पुराने रेडियो की तरह
घर के किसी कोने में चुपचाप शांत |
जिसपे कभी कभी नज़र अकस्मात ही चली जाती है जैसे तुम्हारी प्रोफाइल पर नज़र अकस्मात पड़ जाती है।
हाँ…. सच में अब एक जैसे हो गये हो मेरे लिए तुम और रेडियो।
शीर्षक:- संघर्ष पथ
संघर्ष पथ पर चलना होगा
सूरज की तरह जलना होगा
राह में आएंगे कई कांटें पर
अपनी जिद पर अड़ना होगा
लक्ष्य की चाह है अगर तो
संघर्ष कईं तुम्हें करना होगा
जीवन के उतार चढ़ाव से
अकेले ही तुम्हें लड़ना होगा
संघर्ष के बिना जीवन कैसा
संघर्ष पथ पर बढ़ाना होगा
डराएंगे रास्ते हर मोड़ पर
निडर होकर गुजरना होगा
संघर्ष पथ के पथिक बने
तो सम्भल कर चलना होगा
शीर्षक:- पर्दा जरूरी है या मजबूरी है
कोई कहता है पर्दा जरूरी है,
कोई कहता है पर्दा मजबूरी है |
क्या घुंघट नारी का सच्चा श्रृंगार,
जिसके अभाव में हर स्त्री अधूरी है |
पर्दा सिर्फ रुख पर ही नहीं,
आंखों में लाज शर्म भी जरूरी है |
सिर्फ चेहरे को ढकना पर्दा नहीं,
घर की चौखट पे भी पर्दा जरूरी है |
जहाँ से गुजरने वाला कोई सख्श,
न जान सके कि अंदर क्या मजबूरी है |
तन पर पूरे कपड़े है या फटे-
पुराने लिबास में हो रही वो पूरी है |
घर में है अन्न का दाना उतना,
जितना कि हर सदस्य को जरूरी है |
कोई भांप न ले घर के हालात,
शायद इसलिए ये पर्दा जरूरी है |
घुंघट की आड़ में छिप जाते हैं,
कुछ दर्द कुछ जख्म ये प्रथा जरूरी है |
आंखों से गिरते ये मोती से आंसू,
इन्हें पर्दे की ओट में पीना मजबूरी है |
पर्दे में रहो ये कहने वालों सुनो,
नजर में भी हो पर्दा ये जरूरी है |
पर्दा सिर्फ नारी के लिए है चलन में,
क्या समाज की ये सोच आज भी जरूरी है |
शीर्षक:- सावन की रिमझिम बरसे बदरिया
सावन की रिमझिम बरसे बदरिया,
कब आओगे मोरे श्याम सांवरिया |
देखन को तुमको तरसे नजरिया,
आन मिलो अब तो श्याम सांवरिया |
छम छम बरसे कारी बदरिया,
तुम बिन सूने पिया महल अटरिया |
रात जलाए, मोहे जलाए दोपहरिया,
याद सताए तोरी आठों पहरिया |
नैनन से छलके असुंवन की गगरिया,
भीज गई श्याम पिया मोरी चुनरिया |
एक तो कटे ना पिया बिरहा की रतिया,
उसे पे अग्न बरसाए ये कारी बिजुरिया |
आग लगे बदन में धड़के है छतिया,
सावन में गए जब कोई कजरिया |
जब से भए बैरी पिया परदेसिया,
लीन्ही ना मोरी खोज खबरिया |
भा गई पिया को हाय कौन सौतानिया
किस बैरन ने रोक लींहीं डगरिया |
सारी उमर तोरी करूँ चाकरिया,
लौट के आजा साजन अपनी नागरिया |
ढोते ढोते पिया दुख की गठरिया,
थक गई साजन तोरी नाजुक गुजरिया |
तोरी मीरा घूमे बन के बावरिया,
अब तो आ जाओ पिया श्याम सांवरिया |
सावन की रिमझिम बरसे बदरिया,
कब आओगे मोरे श्याम सांवरिया |
शीर्षक:- आसमान
आसमान के मंजर सारे
मन को कितना लुभाते हैं,
नीले पीले गुलाबी काले
बादल आसमान पर छाते हैं |
कभी चिड़ियों का और पक्षियों
का झुंड दिखे आसमान में,
कभी इंद्रधनुष के रंग सारे
आसमान में बिखर जाते हैं |
दिन सुनहरा लगता है स्वर्ण
सा आसमान में जब सूरज हो,
शाम ढले जब तो आसमान
के रंग गुलाबी से हो जाते हैं |
ये नीलम सा नीला अंबर
नीला समंदर कर देता है,
आसमान के रंग सारे पानी
में इस तरह उतर आते हैं |
सफेद बादलों की चादर ओढ़
कर आसमान छुप जाता है,
जब छाए काली घटाए तो
बनकर सावन बरस जाता है |
आसमान हो जैसे कोई जादूगर
क्या क्या करतब दिखाए है,
शाम जब आए तो नीला अंबर
श्याम रंग में रंग जाता है |
बिखर जाती है आसमान में
दुधिया सी चांदनी रात,
स्याह आसमान टिमटिमाते
तारों से भर जाता है |
चांद का घटता बढ़ता रूप
मन को लुभावना लागे,
जब आसमान में चंदा तारों
के बीच चांदनी बरसाता है |
कभी तड़पे आसमान में बिजली
कभी बादल गरजे शोर मचाए,
सारा आसमान काले कजरारे
मदमस्त बादलों से भर जाता है |
पुष्पा साहू मीरा
प्रयागराज उत्तर प्रदेश