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PALLAVI JHA KI KAVITA

शीर्षक:- “मीरा का प्रेम”
प्रेम ज़रूरी नहीं,
कि वो सिर्फ़ प्रियतम से हो,
सच्चा प्रेम तो वही है,
जो एक भक्त को भगवंत से हो।
जिसमें न स्वार्थ हो,
न पाने की चाह,
बस समर्पण ही समर्पण हो,
और मन में बस एक ही राह।
ऐसा ही प्रेम था मीरा का,
जो जन्मी थीं राजमहल में,
पर दिल था बाँके बिहारी में,
हर साँस में बसा था श्याम,
हर धड़कन में उनका ही नाम।
विवाह हुआ, पर मन न बदला,
हर ताने–ज़हर को सहा,
पर कृष्ण को कभी ना छोड़ा,
हर हाल में बस उन्हें ही चाहा।
न समझा कोई उनके प्रेम को,
न राजा, न समाज ने,
पर वक़्त आज भी गाता है गीत,
उस मीरा के सच्चे विश्वास को,
वो प्रेम, जो न किसी किताब में सिखाया जाता है,
न किसी रिश्ते में पूरी तरह निभाया जाता है।
वो प्रेम, जिसे दुनिया आज भी समझ नहीं सकी,
पर वो प्रेम आज भी जीवित है —
इतिहास की हर गूंज में,
और हर उस दिल में,
जहाँ कृष्ण बसते हैं।
शीर्षक:- “माँ का अंतहीन प्रेम”
माँ, तुम घबराती बहुत हो,
छोटी-छोटी बातों को दिल से लगा लेती हो।
हर वक्त परेशान रहती हो, उदास-सी लगती हो…
क्या हुआ है तुम्हें?
क्यों तुम अब पहले जैसी नहीं रहतीं?
क्या माँ, तुम कभी थकती नहीं हो?
हमारे लिए तो तुम चैन से सो भी नहीं पाती।
अगर मेरी तबीयत ज़रा-सी भी खराब हो जाए,
तो रात-रात भर जागती रहती हो।
मेरे घर आते ही,
तुम मुझे सीने से लगाकर
मेरे चेहरे से ही सब जान लेती हो।
भूख लगने पर तरह-तरह के पकवान बनाती हो,
और मेरे लिए सब कुछ सह जाती हो।
माँ, मुझे तुमसे एक शिकायत है —
क्यों माँ, तुम अपना ख्याल क्यों नहीं रखतीं?
क्या ज़रूरी है कि जब तबीयत खराब हो,
तब भी सारे काम करते रहना?
क्यों माँ, तुम अपनी परवाह नहीं करतीं?
खुद को हर बार क्यों भूल जाती हो तुम?
माँ, अगर तुम थक गई,
तो हमें संभालने वाला कौन होगा?
तेरे निस्वार्थ प्रेम ने हमें जीना सिखाया,
पर माँ — तुम खुद के लिए कब जीना सीखोगी?
~ पल्लवी झा
सीतामढ़ी ~