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PALLAVI JHA KI KAVITA

शीर्षक:- “मीरा का प्रेम”
प्रेम ज़रूरी नहीं,
कि वो सिर्फ़ प्रियतम से हो,
सच्चा प्रेम तो वही है,
जो एक भक्त को भगवंत से हो।
जिसमें न स्वार्थ हो,
न पाने की चाह,
बस समर्पण ही समर्पण हो,
और मन में बस एक ही राह।
ऐसा ही प्रेम था मीरा का,
जो जन्मी थीं राजमहल में,
पर दिल था बाँके बिहारी में,
हर साँस में बसा था श्याम,
हर धड़कन में उनका ही नाम।
विवाह हुआ, पर मन न बदला,
हर ताने–ज़हर को सहा,
पर कृष्ण को कभी ना छोड़ा,
हर हाल में बस उन्हें ही चाहा।
न समझा कोई उनके प्रेम को,
न राजा, न समाज ने,
पर वक़्त आज भी गाता है गीत,
उस मीरा के सच्चे विश्वास को,
वो प्रेम, जो न किसी किताब में सिखाया जाता है,
न किसी रिश्ते में पूरी तरह निभाया जाता है।
वो प्रेम, जिसे दुनिया आज भी समझ नहीं सकी,
पर वो प्रेम आज भी जीवित है —
इतिहास की हर गूंज में,
और हर उस दिल में,
जहाँ कृष्ण बसते हैं।
~ पल्लवी झा
सीतामढ़ी ~