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ADARSH OMKAR KI KAVITA

शीर्षक:- सिरहाने की प्यास
अब तेरे शहर का कोना ढूंढ रहा हूँ,
स्मरण भूत का है, पर वर्तमान का,
सिरहोना ढूँढ रहा हूँ।
मैं ढूँढ रहा हूँ….
तेरै अलको की वो लहराते पतंगो को,
तेरे ख्वाबों के सुनहरे रंगों को,
तेरी खामोशी पर, उषा की तरंगों को,
तेरे पल्लू की स्पर्श और उमंगो को,
और मेरे लिए हुए पीड़ाओं को,
जो मुझे आज भी, नींद में,
तेरे होने का एहसास दिलाती है,
और सिरहाने का प्यास बुझाती है।
अब तेरी यादों में डायरी का
वो कोना ढूँढ रहा हूँ।
तेरी विश्वासों का,
हॅसना -रोना ढूँढ रहा हूँ।
मैं ढूँढ रहा हूँ…
शहर के पश्चिमी हिस्से की,
वो नर्म हवाओं को,
जिसमें तेरी खुशबू मेरे मुखड़े पर
धूल का एहसास दिलाती है ।
और वसंत की शिशकती हवा ‘
गुलमोहर की लाल पुष्प बरसाती है।
और तेरे होने का आभास कराती है ।
अब तेरे विरह में ,
तेरी बातों का मिठास ढूँढ रहा हूँ।
अंतर्मन का आकाश ढूँढ रहा हूँ ।
मैं दूँढ रहा हूँ ….
बरगद के नीचे की
वो बात ,
पीपल के पीछे की
वो मुलाकात ,
स्वप्नों में एक दूसरे का विश्वास ,
अनकही और अनर्गल बातों का
वो सच्चा आभास ,
और ….
वो सब कुछ जो तेरे
आने का आहट को याद दिलाती है।
और तेरे होने का एहसास दिलाती है।।
और आज भी ,
मेरे सिरहोने की प्यास बुझाती है।।
✍️✍️आदर्श ओंकार
(तृतीय समसत्र का छात्र )
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग , पूर्णियाँ विश्वविद्यालय , पूर्णियाँ
शीर्षक:- सब बिक जाते है
देखते ही देखते यहाँ,
सब बिक जाते हैं।
कि जैसे न रहो घर में,
तो मकान बिक जाते हैं।
खड़े रहो चौक पर तो,
दुकान बिक जाते हैं।
कपटी का हो राजा,
तो श्मशान बिक जाते हैं।
शरीर पर हो खाकी,
तो इमान बिक जाते हैं।
जेब में हो पॉवर तो
बिक जाता है समूचा सागर।
यूँ तो बिकाऊ सब बेच देते हैं।
पर कुछ है-जो अटल है, अमर है।
जिसे चाहकर भी
बेच नहीं पाते हैं।
वो… .
ईमानदारी सा शान है,
खौफ सा जबान है,
गाॅंधी का वो नाम है,
सरहद का मैदान है,
गीता का वो ज्ञान है,
लोकतंत्र सा जान है।
गंगा की वो धार है,
भारतवर्ष का प्यार है।
यूँ तो तितर- बितर कर,
रख देते हो सारे।
लेकिन अफ़सोस की बात यह है,
कि ,कुछ कर नहीं पाते हो, प्यारे!
बिक जाओगे खुद एक दिन,
खुदा के हाथों तुम।।
पछताओ, गिर गिराओगे,
पर लौट कर न आओगे तुम।।
शीर्षक:- सुनसान
सुनसान सी उस सड़कों पर ,
मोटर की ,
शोर सुनाई पड़ती थी,
…… कभी
गलियों और चौराहों पर ,
बैठ चार लोग ,
आपबीती कहते थे,
…….कभी
जहां शाम को बगीचे से,
गिल्ली-डंडा की ,
आवाजें आती थी ,
आज वह बगीचा और चौराहा भी ,
सुनसान का सुनसान ही रह गया।।
किसान जो हाथ में कुदाल लेकर,
खेत पर जाते थे,
मजदूर जो हमारे यहाँँ,
काम पर आते थे,
शाम को बैठ 4 लोग,
चौकी पर ,
वो चाय की चुस्कियाँँ लेते थे,
आज वह बंगला और चौकी भी,
सुनसान का सुनसान ही रह गया।।
कभी चार बच्चे साथ मिलकर,
पढ़ने जाते थे,
कभी स्कूल ,
तो कभी ट्यूशन जाते थे,
आज वह स्कूल और ट्यूशन भी,
सुनसान का सुनसान ही रह गया।।
कभी चार नौजवान ,
पान की दुकान पर ,
फजूल की बातें करता था।
आज वह कहां ,
आज वो पान का दुकान भी,
सुनसान का सुनसान ही रह गया।।
कभी मंदिरों और मस्जिदों में,
लंबी कतारें लगी रहती थी ,
आज तो आरती के समय ,
बस चार लोग ,
बाकी मंदिर और मस्जिद भी,
सुनसान का सुनसान ही रह गया।।
शीर्षक:- संघर्ष
हिमालय की उस शिखर पर देखो,
निकलती है जहाँ से गंगा।।
जब वह आती है धरा पर,
पता नहीं जाती है कहाँ पर।।
देखो यह है खेल जगत का,
पता नहीं क्या होता है।।
चलना है तुमको इस पथ पर,
न-न कह इठलाते हो।।
हिमालय….
तुम दिन में चलते रात को सोते,
पता नहीं वह चलता कब तक।।
जिस दिन तुम इसको जानोगे,
उस दिन सब तुमको जनेंगें।।
हिमालय….
जीवन के संघर्षों को तुम,
रख हथेली अब, बढते जाओ।
क्या है ठिकाना, क्या है मंजिल
धीरे धीरे गढते जाओ।
हिमालय की…….
लाख तुफानों के सरदार हो,
बूढ़े बाप के हो,सरताज ,
अत्मबल जब चूर हो जाए,
चलने से मजबूर हो जाओ,
एरी चोटी का जोर लगाओ,
करके फतेह तुम वापस आओ।।
हिमालय की…….
शीर्षक:- मेरी अभिलाषा
है! मेरी आशा की अभिलाषा ।
कैसे बताउँ तुम्हैं मैं,
अपनी मन की भाषा,
तुम ही मेरी प्रीत हो,
तुम ही मेरी मीत हो,
तुम हो तो जीवन में,
अंधेरा छट जाए,
तुम हो तो रातों में भी,
उजियारा छा जाए।
तुम सुकून मेरे हृदय की,
तुम स्वाभिमान मेरे सम्मान की,
तुम हो ज्ञान मेरे अज्ञान की,
तुम ही गाण मेरे गुणगान की,
मर्यादा का बंधन तुम हो,
आदर्शों का संयम तुम हो,
धैर्य का सागर, करूणा की,
वो ज्ञान हो तुम।
इस जीवन का सम्मान हो तुम।
तुम व्याकरण सी भोली हो,
तुम अखंड भारत की बोली हो।
तुम अस्वासन का ग्रंथ हो,
तुम अनुशासन का मंत्र हो।
जीवन का ब्रम्हांड तुम्ही हो,
स्नेह से अंकुरित ज्ञान तुम्ही हो।
सौन्दर्य का गान तुम्ही हो,
सहजता की पहचान तुम्ही हो।
तुम धन हो, तुम मन हो,
तुम छाया हो, तुम माया हो,
तुम राग हो, तुम त्याग हो,
तुम बात हो, तुम रात हो,
तुम सार हो, संसार हो,
तुम धैर्य हो, तुम शौर्य हो,
तुम अर्थ हो, तुम शर्त हो,
तुम जंग हो, तुम रंग हो,
हे प्रिय!
तुम ही मेरे जीवन का,
मार्तण्ड(सूर्य) हो।
तुम आश हो, तुम प्यास हो,
तुम आकर हो, प्रकार हो,
तुम दरिया हो, तुम साहिल हो,
तुम सरल हो, तुम सौम्य हो,
तुम धूप हो, तुम छांव हो,
तुम मंत्र हो, तुम तंत्र हो,
तुम ज्ञान हो, तुम ध्यान हो,
तुम आभास हो, एहसास हो,
हे प्रिय!
तुम्हीं रश्मिरथी की प्यास हो।
मैं तीक्ष्ण तेरा गुणगान करूँ,
है मुझमें ये सामर्थ्य नहीं।
मैं पथभ्रष्ट ,क्या समझूँ तुमको,
मैं उतना ऊत्तकृष्ट नहीं।
तुम स्वामिनी सम्पूर्ण धरा के,
है तुझसे बढकर ईष्ट नहीं।
तुम हो वैसाख की कोमल कलियाँ,
है तुझसे सौरभ (सुगंधित) कोई पुष्प नहीं।
शीर्षक:- उद्देश्य स्पष्ट है
उद्देश्य स्पष्ट है?
जिस ओर जमाना चलता है,
उस ओर जवानी चलती है।
भू-डोल रहे डगमग- डगमग,
आहत का यह प्रतिघात हुआ।
है, आ जाए जब असुर समक्ष,
सक्षमता से बढ़कर युद्ध किया।
तन की धमकी ज्वाला से,
जब! सुरमुंडों का संहार किया।
भय से कंपित उस भूमि का,
जब मैं उसका उद्धार किया।
जयघोष सुनाई परती थी,
खाली आंगन की गूँज यहाँ।
निर्बल न रहो, निर्भिक बनो,
ये मंत्र सभीको सिखला डाला।
बच्चे -बच्चे को जब मैंने,
हिंसा का पाठ पढा डाला।
और कहा…
उद्देश्य स्पष्ट है!
कि, जब छिन तेरी मुंह की रोटी,
जब छिन तेरे घर की बेटी,
जब छिने तेरे ममता का द्वारा,
जब छिने तेरे बच्चे की गुहार।
जब मोह माया के बंधन को,
वह निश्छल यहाँ टटोला।
तब सूर्य की भांति ,उदित किरण,
जब अपना द्वारा तू खोलेगा।
धर लिए हाथ में तीर- तूणीर,
खड़्-खप्पर लेकर दौड़ेगा।
खंड-खंड में बाटेगा,
कोहराम मचा के लौटेगा।
संताप मिटा कर आना, उसका।
मुंह से रोटी लाना , उसका।
छिन अपने मर्यादा घर की,
छिन माता के वादा सर की,
छिन ममता के बंधन को तुम,
और छिन कायर से… .
उसके प्रण को तुम।
और कहना…
उद्देश्य स्पष्ट है!
आते -आते एक स्पष्ट,
व्यख्या भी उसको कर देना।
थी ,भीड़ जवानी उस दिन तेरी,
वो आज जवानी है, अब मेरी।
था, कोमल हृदय, मन सच्चा था।
उस दिन में भी एक, बच्चा था।
है, प्राण अगर तेरे भुजबल में,
तो मुझको अब, ललकार यहाँ।
बोटी- बोटी नोच खाउंगा,
है भारत माँ का लाल यहाँ।
नाम – आदर्श ओंकार
जिला – पूर्णियाँ
राज्य – बिहार
मो० – 6205519695