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PIYUSH GOYAL पीयूष गोयल जी की कहानियाँ

शीर्षक:- तरीक़े आपने ख़ुद ढूँढने हैं….
मेरे पिता जी का ट्रांसफ़र सबदलपुर( सहारनपुर) से चौमुहां ( मथुरा ) सन् १९७७-७८ में हो गया, मैं उस समय छटवीं कक्षा का विद्यार्थी था. गाँव चौमुहां मतलब चार मुख वाला यानी वहाँ पर भगवान ब्रह्मा जी का मंदिर हैं मैं आपको बताता चलू भगवान ब्रह्मा जी का मंदिर पुष्कर के अलावा चौमुहां में भी हैं. पिता जी ने मेरा दाख़िला सर्वोदय इंटर कॉलेज में करवा दिया, दूसरे तीसरे दिन मेरे साथ के बच्चों ने मजाक बनाना शुरू कर दिया, मैं खड़ी बोली बोलने वाला और सभी बृज भाषा बोलते थे.लेकिन बृजभाषा सुनकर आनंद आता था.
एक दिन इंग्लिश वाले अध्यापक ने Table की स्पेलिंग पूछ ली,और मुझे याद नहीं,गुरु जी ने पतली छड़ी से पिटाई की मैं बहुत रोया, लेकिन मन ही मन अपने आप से कमिटमेंट कर लिया कि गुरु जी आज आपने पिटाई की आज के बाद English Spelling पर पिटाई नहीं खाएँगे.घर आये और इंग्लिश की पुस्तक में से ४,५ व ६ अक्षर वाले शब्दों को कॉपी पर लिख लिया, पूरी पुस्तक में से क़रीब ३०-३५ शब्द मिले याद कर लिया और एक दिन जब याद हो गये, गुरु जी जैसे ही कक्षा में आये, मैंने उनको कॉपी देकर कहा, गुरु जी ये इंग्लिश पुस्तक में से ४,५ व ६ अक्षर वाले शब्द ढूँढ कर याद कर लिए आप पूछ लो.
गुरु जी ने बड़े ध्यान से कॉपी को देखा उसी समय कुछ शब्द पूछ लिये और कॉपी अपने पास रख ली.जो-जो शब्द उन्होंने पूछे थे मैंने सही -सही बता दिये. गुरु जी ने वो कॉपी अपने पास रख ली और कभी वापिस नहीं मिली, हाँ मैं गुरु जी का सबसे समझदार शिष्य हो गया और कक्षा में कभी भी गुरु जी स्पेलिंग पूछ लेते थे पर उसके बाद मेरे से कभी भी स्पेलिंग नहीं पूछी, मेरा कहने का मतलब ये हैं, छोटे- छोटे प्रयास आपको तरक़्क़ी दिलवाते हैं, कोई भी चीज मुश्किल नहीं हैं, चीजों को आसान आपने बनाना हैं.. तरीक़े आपने ख़ुद ढूँढने हैं.
शीर्षक:- पैसे की क़ीमत
एक क़स्बे में दो घनिष्ठ मित्र रहते थे,बात आज़ादी के तुरंत बाद की हैं,एक धनी था,एक इतना धनी नहीं था,रोज़ाना कमाना और गुजर बसर करना,पर दोस्ती की लोग मिसाल दिया करते थे.दोनों दोस्त अपने-अपने माँ बाप की इकलौती संतान थे.एक दिन दोनों दोस्त साथ-साथ अपने-अपने घरों को जा रहे थे,विदा लेते समय निर्धन दोस्त ने अपने दोस्त से १० रुपये उधार माँगे,धनी दोस्त ने देर नहीं की देने में और बोला कुछ और चाहिए तो बता,नहीं-नहीं मुझे तो बस १० रुपये ही चाहिए.अगले दिन धनी दोस्त अपने दोस्त का इंतज़ार करता रहा, सुबह से दोपहर हो गईं,आपस में नहीं मिले चिंता होने लगी,बहुत इंतज़ार करने के बाद धनी दोस्त अपने दोस्त को देखने उसके घर की ओर चल दिया,घर पर ताला लगा था,पड़ोसियों से पूछा सब ने मना कर दिया हमें कुछ नहीं बता कर गया हैं,हाँ सुबह क़रीब ४ बजे कुछ हलचल तो थी.धनी दोस्त सोच में पड़ गया आख़िर बिना बताये कहाँ चला गया.
हर रिश्तेदार के यहाँ पता लगाया पर कुछ पता न चला, समय बीतता रहा,धनी दोस्त कुछ समय के लिए तो परेशान रहा,कुछ समय बाद शादी हो गई बच्चे हो गये,अपने काम में व्यस्त रहने लगा.जब भी समय मिलता रिश्तेदारों से पूछताछ करता रहता था पर पता न चला.क़रीब २५ साल बाद धनी सेठ को अपने व्यापार के लिए लखनऊ जाना हुआ, काम के कारण सेठ को क़रीब एक सप्ताह रुकना था,सेठ सोचने लगे क्यों न शहर भी घूम लिया जाये,एक दिन दोपहरी का खाना खाने एक होटल में रुके,ग़रीब दोस्त अपने धनी दोस्त को पहचान गया,जैसे ही सेठ खाना खाने के बाद पैसे देने के लिए काउंटर पर आया,दोस्त ने पैसे लेने से मना कर दिया,धनी दोस्त के पैर पकड़ कर ज़ोर- ज़ोर से रोने लगा और कहने लगा मैं तुझे वो १० रुपये नहीं दूँगा,जैसे ही धनी दोस्त ने ये सुना तुरंत गले से लगा लिया, दोनों दोस्त गले लग कर आपस में बहुत रोये,धनी दोस्त रोते हुए बोला पगले मैं तेरे से १० रुपये लेने नहीं आया हूँ.मैं तेरे से बहुत नाराज़ हूँ बिना बतायें यहाँ आ गया, मुझे पता हैं पर मैं क्या करता…. इसके लिए मुझे माफ़ कर दें पर ईश्वर ने हमें फिर से आज मिलवा दिया.
आपस में बहुत बातें हुई अपने दोस्त को घर ले गया और अपने बच्चों से मिलवाया,अपने बेटे से बोला जा अपने ताऊ का सामान उस होटल से ले आ जिसमें ठहरें हुए हैं,रात का खाना खाने के बाद,सब बैठ कर बातें कर रहे थे, ग़रीब दोस्त ने अपने बचपन के दोस्त के बारे में बताया और मैंने १० रुपये उधार लेकर बिना बतायें अपने माँ बाप को लेकर मैं यहाँ आ गया,उन १० रुपयों से मैंने चाट की रेहड़ी लगाई,मेहनत की, आज एक होटल हैं और ये एक मकान,मुझे पता हैं उन १० रुपयों की क़ीमत आज मैं जो भी हूँ उन १० रुपयों की वजह से हूँ,मुझे पता हैं “पैसे की क़ीमत”, और हाँ वो १० रुपये मैं वापस नहीं करूँगा.परिवार में आपस में आना जाना शुरू हो गया,सबको पता चल गया दो बिछड़े दोस्त दुबारा से मिल गये हैं. लखनऊ वाला दोस्त बोला जो हमारा पुश्तैनी मकान हैं वो मैं तेरे नाम करता हूँ,एक दिन आकर सब से मिल भी लूँगा और मकान के कागज तेरे को दें दूँगा.
शीर्षक:- ट्यूशन
मेरे पिता जी का ट्रांसफर जलालाबाद ( थानाभवन) से बदायूं हो गया,बदायूं के पास एक छोटा सा गाँव था तातागंज,वहाँ मैं कुछ दिन ही रहा,मेरे पापा डॉक्टर थे,नीचे अस्पताल था ऊपर मकान जिसमें हम लोग रहते थे,मकान की ख़ाशियत ये थी की दरवाज़े तो थे पर कुंडी नहीं थी,उस गाँव में मुझे याद हैं सब्जी बेचने वाले के पास भी तमंचा होता था. उस गाँव में खोयें का काम होता था और अक्सर किसी ना किसी के यहाँ से रोज़ाना खोयाँ आ जाया करता था,मेरी मम्मी खोयें में चीनी डाल कर सबको दे देती थी अक्सर खौएँ को हम खा कर कटोरी छत पर ही छोड़ देते थे,और बड़े मजे की बात कौआ आकर उस खाली कटोरी को अपनी चोंच में लेकर उड़ जाया करता था और हम सब चौंच में कटोरी ले जाते हुए कौएँ को उड़ता हुए देखते थे बड़ा ही मज़ेदार दृश्य होता था,और वो कटोरी हमारे घर पर वापिस आ जाती थी,कारण जो मुझे लगता था एक तो कटोरी स्टील की थी और दूसरा उस पर पापा का नाम लिखा होता था.
मैं वहाँ पर कुछ दिन ही रहा,इस गाँव में एक प्राइमरी स्कूल था जो नदी किनारे था,सूरज को उगते हुए देखना,पेड़ों की छांव,नदी में जलमुर्गियों का देखना सब ग़ज़ब था. कुछ दिनों बाद मैं अपने ननिहाल आ गया, इसी बीच पापा का ट्रांसफर वहाँ से जिला सहारनपुर के सबदलपुर गाँव में हो गया और मैं भी ननिहाल से सबदलपुर मम्मी पापा के पास आ गया.यहीं पर ही मेरी और मेरे भाई की प्राइमरी की शिक्षा हुई,पापा ने हम दोनों भाइयों के लिए एक ट्यूशन लगा दिया.जो मुल्ला जी के नाम से प्रसिद्ध थे,और उन्होंने हमें प्रारंभिक पढ़ाई में बहुत मजबूत बना दिया,और हम दोनों भाइयों की ट्यूशन की फीस १०-१० रुपये थी, जब हम दोनों भाई ४-५ कक्षा में आए तो पिता जी ने एक नया ट्यूशन लगा दिया, जिस स्कूल में हम पढ़ते थे उसी स्कूल के एक अध्यापक से जिनका नाम था सेठ पाल जी जो रोज़ाना करीब १०किलोमीटर दूर साइकिल से आया करते थे.मेरे ट्यूशन के २५ रुपये और छोटे भाई के १५ रुपये लिया करते थे. एक दिन पता लगा की पिता जी का ट्रांसफर सबदलपुर से मथुरा के एक गाँव चौमुहां हो गया.
ये वो जगह हैं जहाँ पर मेरी ज़िन्दगी के सबसे सुनहरे दिन बीते,करीब ७ साल में हम लोगों ने बाँके बिहारी मंदिर के लगभग पचासियों बार दर्शन किए होंगे.यहाँ पर भी पापा ने मेरा ८-१२ वी तक का ट्यूशन लगवा दिया, जिनका नाम S.N.Singh जी था और जिनकी फ़ीस महीने की १०० रूपये हुआ करती थी जो १२ तक यही रही, और मजे की बात यह रही वो आर्ट साइड के अध्यापक थे और मैं साइंस साइड का विद्यार्थी,आपको बताता चलू Singh Saheb कौन थे, आप सब ने रामानंद सागर जी के महाभारत सीरियल का नाम तो जरूर सुना होगा,उस सीरियल में जिसने द्रोणाचार्य का रोल निभाया था उनके सगे बड़े भाई थे.
स्कूल का नाम था “सर्वोदय इंटर कॉलेज”मैं साइंस साइड का विद्यार्थी था और आर्ट साइड के अध्यापक से ट्यूशन पढ़ता था स्कूल के साइंस साइड के अध्यापकों से ये कई बार सुना की साइंस साइड का विद्यार्थी आर्ट साइड के अध्यापक से ट्यूशन पढ़ता हैं और कक्षा में खुन्नस भी निकाला करते थे.जब हाई स्कूल का रिजल्ट आया और मेरी हाई स्कूल में फर्स्ट डिवीज़न आ गई और सिर्फ़ पूरे स्कूल में दो ही विद्यार्थियों के फर्स्ट डिवीज़न आई थी,बाद में हम दोनों पक्के दोस्त हो गए,जो लोग ये कहा करते थे साइंस साइड का विद्यार्थी आर्ट साइड के अध्यापक से ट्यूशन पढ़ रहा हैं कहना बंद कर दिया.उसके बाद तो गुरु जी के पासा ट्यूशन की लाइन लग गई, गुरु जी ने तीन शिफ्ट्स में ट्यूशन पढ़ाने शुरू कर दिए. दोस्तों,यहाँ पर मुझे एक लड़की से प्यार हो गया,और सन १९८४ में मैं मथुरा से मुजफ्फरनगर आ गया इंजीयरिंग करने और मेरा प्यार ऐसे ही ख़त्म हो गया,मोबाइल तो दूर फ़ोन भी नहीं थे बात नहीं हो पाई आज तक नहीं मिल पाए पता नहीं कहाँ हैं, कुछ भी हो पहला प्यार भुलायें नहीं भूलता, सच में ट्यूशन ने मुझे बहुत कुछ दिया और जीवन जीने का तरीका भी सिखाया.
शीर्षक:- शहर
एक गाँव में १२ वी कक्षा के सरकारी स्कूल में एक बहुत ही कर्मठ ईमानदार प्रधानाचार्य अपने परिवार के साथ रहते थे,जिनके एक बेटा और एक बेटी थी जो बहुत ही होशियार थे. समय बीतता रहा,बिटिया का चुनाव सिविल सर्विस में हो गया और बेटे की भी नौकरी एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कंप्यूटर अभियंता की लग गई. प्रधानाचार्य ने अपनी बेटी की शादी बड़े ही धूम धाम से की,बेटा भी नौकरी के लिए शहर चला गया,अब गाँव में सिर्फ़ प्रधानाचार्य व उनकी पत्नी रह गये.प्रधानाचार्य जी की ज़िद थी कि मैं दामाद व बहु गाँव से ही लूँगा और उन्होंने ऐसा ही किया,स्वाभाविक हैं दोनों पढ़े लिखे ही लिए होंगे. एक दिन अचानक प्रधानाचार्य जी की पत्नी का स्वर्गवास हो गया,पूरे गाँव में जैसे मातम सा छा गया,सब कुछ सामान्य होने में समय लगा,बेटा,बहु,दामाद व बेटी बड़े ही भावुक मन से पिता जी से बोले, पिता जी अब आप अकेले कैसे रहोगे,आप कुछ समय भाई के पास रहना और कुछ समय मेरे पास…. सभी फूट फूट कर रो रहे थे. पिता जी ने अपने बच्चों की बात मान ली, हाँ बेटा जैसा तुम लोग कहो. बड़े ही कच्चे मन से बेटे के साथ चल दिये उस शहर की और जिस शहर में बेटा नौकरी करता था.
बहु और बेटा दोनों बहुत ख़्याल रखते थे,एक दिन अचानक प्रधानाचार्य जी की तबियत ख़राब हो गईं,अस्पताल में भर्ती कराया गया,कई दिनों बाद होश आया और अपने लायक़ बेटे और बहु को बुलाया बेटा शहर में तो मैं जल्दी मर जाऊँगा,तुम लोग ८वी मंज़िल पर रहते हो, लिफ्ट से आना जाना( मैं तो चलाना भी नहीं जानता),और तुम दोनों नौकरी पर चले जाते हो,पूरे दिन अकेला ही रहता हूँ. बेटा अगर तुम मुझे और जिंदा देखना चाहता हो तो तुम मुझे ले चलो “शहर से गाँव की ओर”.