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SEJAL AGRAHARI KI KAVITA

शीर्षक:- एक बदलाव
दिन ये माणिक लुटा रहा
रात ये मोती लुटा रही
चल कल से आज की तरफ यहां जो भी पाया
वो भी नश्वर जो खोया वो भी नश्वर
जब प्राकृति ने भी बनाया नियम परिवर्तन का।।
तो तू क्यूं रुकना चाहता यहां
क्या नहीं बदलती ठंड की सिहरन
क्या नहीं बदलती गर्माहट
या नहीं बदलती ऋतुएं
उठ जाग, तू खुद को पहचान
हे मानव तू भी है ,परिवर्तन की निशानी
हर सवेरा है, परिवर्तन की नई कहानी
हम भी लिखे परिवर्तन के पन्नो पर
एक अक्षर परिवर्तन का।
सेजल अग्रहरि, प्रतापगढ़
शीर्षक:- मै “मै ” ना हूं
मै “मै “ना हूं
हजारों सवाल तुझसे थे, जिन्दगी
जवाब ढूंढते -ढूंढते सवाल ही भुला बैठे
यूं जिंदगी की गलियों में
रास्तेभी मिट से गए
मानो कही खो ही गए
चले थे नई पहचान ,बनाने
हमें कहा पता था ।
हम तो अपनी पहचान ही खो बैठे
ए जिंदगी तुझसे शिकायतें बहुत थी
पर वक्त ने खामोश कर दिया
अब जी चाहता फिर से वक्त में जाऊं पीछे बन जाऊ मां का लाड़ला,
दादी का दुलारा,
फिर से जिंदगी तू, बडी हसीन होती
शीर्षक:- देशप्रेम
क्या देश प्रेम सिमट गया
या प्रेम ही देश के प्रति सिमट गया
क्या सिर्फ सैनिक ही कर सकते
प्रेम देश से
क्या नहीं है वे देश प्रेमी
जो रहते है टुंडा के क्षेत्रों में
क्या वे भी नहीं हैं, देश प्रेमी
जो सहते ताप ,रेत की
अरे ये भी तो है देश प्रेमी
जो सिमट जाते पहाड़ों पर
इनका प्रेम है अटल देश के प्रति
फिर क्यों कहते टुकड़े करो देश के
क्या नहीं चाहिए ,शांति ,अमन,
और चैन
या नहीं चाहिए खुली हवा में
निर्भय सांस
छोटे फूलों के मन में क्यों भरते
ज़हर मजहब का
फूल तो फूल है मंदिर में भी चढ़ेंगे,
मजार पर भी चढ़ेंगे ।
क्यों बताते हिन्दी हमारी उर्दू तुम्हारी
जब बोलते दोनों का लेकर साथ ।।
शीर्षक:- मां गंगा🌊🌊
मां गंगा तुम अब भी हो पावन
अब भी हो निर्मल
तो क्या हुआ ,अब वे लोग नहीं
तो क्या हुआ ,अब वो सोच नहीं
जो समझ सके तुम हो शिव उद्भविनी
तुम हो जीवन दायिनी तुम हो पोषिका
तुम्हारे बच्चे ही कर रहे
तुमको अस्वस्थ
करते पूजा लेकर माला फूल
फिर क्यों छोड़ते तुझमें विषाक्त
करते मैला तुम्हारे किनारों को
है मोड देते तुम्हारी धाराओं को
बिगड़ता है जब संतुलन प्रकृति का,
देते है दोष खुद की बजाय ईश्वर को
रही तुम मर धीरे -धीरे क्या नहीं देखते
तुम्हारे बच्चे या नहीं समझते,
तुम अब भी वही पौराणिक महत्व
की हो जिसे मुनियों ने पूजा
हे मां गंगा! तुम अब भी हो क्या
वही गंगाजो है, जगत पावनी
जीवन दायिनी।
या बन चुकी हो विषाक्त
प्रवाहित स्थली ।
अपने लाभ के आगे ये भी न देखते
की क्या होगा तुममें बसे जीवो का
क्या वे भी हो जाएंगे अस्तित्व हीन
गंगा क्या तुम अब भी वही गंगा हो ।।
मेरा नाम सेजल अग्रहरि है मैं प्रतापगढ़ से हु
वर्तमान में मैं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के वसन्त महिला महाविद्यालय स्नातक से हिंदी विषय में अध्ययनरत हूं।