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POSHIDA HAYAT KI KAVITA

शीर्षक:- पैसा क्या है?
पैसा क्या है?
इस बदलते दौर के अनुसार,
ग़लत के लिए सही है,
अन्याय को जो न्याय में करते परिवर्तित,
जो असंभव को बनाते संभव ,
ये जिसके पास होता है,
वो मानवीय और सभ्य कहलाते और जिसके पास ये नहीं है,
वो होते दुनिया के लिए ग्वार और जाहिल,
अभी के दौर में,
कुछ सोचते सुकून महलों में है,
किंतु,
वो झोंपड़ी के सुकून से अज्ञात है,
ये पैसों के लालच ,
खा गई मानवीयता,
भूल रही संस्कृति,
ये पैसा करा रही अपनों का अपमान,
लांघ रही उम्र की सीमा,
पैसे वाले नौजवान के लिए आरामदायक कुर्सी
और
बुजुर्ग का स्थान नीचे,
ये पैसों की ही देन है,
जो बदल रही मानवीयता को और हमारे सभ्यता को।
शीर्षक:- जीवन की सफलता
सफलता क्या है?
इस बदलते दौर के लिए,
ऊंची मकान बना लेना,
ऊंचे पद पे नौकरी प्राप्त कर लेना,
ढेर सारे पैसे कमा लेना,
बेरादरी में अपना नाम बनाना व शोहरत प्राप्त करना,
इसी को कुछ लोग सफलता समझते है,
किन्तु,
वो अज्ञात है…
इस बात से कि ,
जीवन की असली सफलता है,
अपने अनुभव से कठिन समय को सरल बना कर अनुकूलन करना,
तथा,
हर परिस्थितियों में समायोजन कर लेना ,
एवं
सभी समस्याओं के प्रति भली-भांति समझ विकसित करना।
शीर्षक:- मृत्यु क्या है?
सांसों की स्थिरता या,
शारीरिक प्रक्रिया का एकदम से विरामावस्था में आना,
या फिर,
स्वप्न का नहीं मिलना,
या फिर,
उत्तम मार्ग का चयन न कर पाना,
मृत्यु का अनुभव हर मनपसंद वस्तु के न होने से भी होता है,
अतः मृत्यु कई जगह है,
अतः उसे पुनः जीवित किया जा सकता है।
जैसे गलत पथ के चयन से सही पथ का दिशा प्राप्त करना सरल होता है,
वैसे,
मृत्यु उपरांत पुनर्जीवन आरंभ हो जाता है….।
शीर्षक:- बेटी होने की विडंबना
मां की चिंता हूं , पिता की उम्मीद हूं ,
समाज की बेड़ियां है, कुछ सपनों की जिद्द हूं,
हजार सुन लेती बात कहे,
लब से मेरे उफ्फ! नहीं निकलते,
क्यों कि,मैं बेटी हूं न!
बचपन से मां-पिता को पढ़ाई की चिंता,
मैं ढल सकूं समाज की सोच में,
इन्हें समाज की चिंता,
जोर से हंसने पर मनाही है।
सिर्फ बेटा को माने गुरूर,
ये कैसी खुदाई है।
तन कर मैं चल नहीं सकती,
पुरुष के काम में मैं ढल नहीं सकती,
मान जाती हूं मैं भी कहे बातों को,
क्यों कि, मैं बेटी हूं न!
बचपन से मुझे सिखाया गया है,
धीमे बोलूं ये बताया गया है,
न हो आवाज बाहर चौखट से,
ये कैसा रित सिखलाया गया है,
सारे प्रश्न मैं स्वयं से करती हूं
न ठहराती जिम्मेदार किसी को,
क्यों कि, मैं बेटी हूं न!
मैं सीख गई हूं चुप रहना ,
छोड़ दी किसी को कुछ कहना!
न अब कुछ चिंतन करती हूं ,
न अब कोई मंथन करती हूं ,
क्यों कि, मैं बेटी हूं न!
Name:- Soni parween
Pen name:- poshida hayat madhepura