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MEENU SHARMA KI KAVITA

शीर्षक:- “वह स्त्री जो सहती रही”
वह चुप रही, सहती रही,
हर ताने को मुस्कान में ढालती रही।
पति के संदेह, समाज की नज़र,
फिर भी निभाती रही अपना घर।
सपनों से सजी थी उसकी डोली,
विश्वास के फूलों से भरी थी झोली।
पर पति ने जब भरोसा तोड़ा,
वह फिर भी मौन रही, ना कोई झगड़ा जोड़ा।
वह सोचती — “शायद मैं ही गलत हूँ”,
हर बार खुद को दोषी बनाती रही।
सालों बीत गए, वो तन्हा रही,
पर कर्तव्य से पीछे न हटती रही।
उसका मन रोया, आँखें सूखी,
पर चेहरे पर मुस्कान की रूखी लकीरें थीं।
उसने आँसुओं को पूजा बना लिया,
दर्द को भी अपना भाग्य मान लिया।
एक दिन सुना — वो फिर ब्याह रचाएगा,
किसी और को जीवन में लाएगा।
उस पल कुछ टूटा, कुछ जागा,
वह अब पहले जैसी न रही, और खुद को अभागा समझती रही।
वह उठी, अपनी राख से,
अपने स्वाभिमान की बात की।
अब वो सहना नहीं, जीना चाहती थी,
अब वो परछाई नहीं, खुद की पहचान बनना चाहती थी।
कहा उसने —
“मैं वही हूँ जो घर सँभालती रही,
जिसे तुमने पराई कहा, वही दीप जलाती रही।
अब और नहीं, ये मौन मेरी शक्ति है,
अब मैं अपने जीवन की भक्ति हूँ।”
अब वह चल पड़ी अपनी राह पर,
आँखों में चमक, ललाट पर प्रभा।
अब न कोई क्रोध, न कोई ताना,
बस आत्म-सम्मान का उजियाना।
वह स्त्री जो सहती रही,
आज वही इतिहास लिखती रही।
अब वो नारी नहीं, प्रेरणा है,
जो हर पीड़ा में भी गरिमा ढूँढ़ लाती है।
चुनौती:
हर दिन एक परीक्षा, हर पल एक घाव,
संदेह के शब्द बनते थे दाव।
विश्वास टूटा, मन घायल हुआ,
पर उसने फिर भी घर को संभाला हुआ।
सालों तक उसने खुद को भुलाया,
परिवार की खातिर हर दुख अपनाया।
वो सोचती — “क्या यही मेरा धर्म है?”
या “स्त्री होना ही मेरा कर्म है?”
समाधान:
अब वो उठी राख से जैसे अग्नि की लौ,
हर दर्द में पाया उसने नव दृष्टिकोण।
कहा —
“अब नहीं झुकूँगी अपमान के आगे,
अब खुद लिखूँगी जीवन के धागे।”
उसने सीखा —
सम्मान माँगा नहीं जाता, अर्जित किया जाता है,
और नारी का मौन भी तूफ़ान कहलाता है।
अब वह औरों की नहीं, अपनी कहानी है,
अब वह स्त्री नहीं — प्रेरणा की निशानी है।
शीर्षक:- अधूरापन (Incompleteness)
जिस तरह आत्मा के बिना शरीर,
बादल के बिना आसमान,
मनुष्य के बिना धरती,
हरियाली और जीव-जंतु के बिना जंगल,
ज्ञान के बिना विद्यार्थी,
भाव–भजन के बिना भक्त,
परिवार के बिना घर,
काम-कर्ता के बिना दफ़्तर,
अधूरा है,
ठीक उसी प्रकार माता–पिता के बिना बच्चे अधूरे हैं।
शीर्षक:- मेरी चाह बस तुम्हारा है
मैं तो बस गंगा किनारे तुम्हारे साथ घाट पर बैठना चाहती थी,
यह मेरी हमेशा से ख्वाहिश है।
तुम्हारे साथ नाव के द्वारा बीच समंदर में फंसना चाहती थी।
उस घाट पर तुम्हारे साथ खो जाना चाहती थी, उन हवाओं को तुम्हारे साथ महसूस करना चाहती थी,जो तुम्हें चूमते हुए गुजरे।
तुम्हें जी भरकर देखना चाहती थी, तुम्हारी आंखों में खो जाना चाहती थी।
तुम्हारे हाथों को चूमना चाहती थी,जिससे तुम अपने परिवार का भविष्य लिखते।
तुम्हारे स्टमक को टच करके तुम्हारे अनकंट्रोल खाने को महसूस करना चाहती थी।
और इसलिए तुम्हारे लिए chief बनना चाहती थी।
शीर्षक:- सुहावना
तुमसे मिली तो वो दिन भी सुहावनी सी थी, वो रात भी सुहावनी सी थी।
और तो और उस रात के अंधेरे में वो रोशनी भी बहुत सुहावनी सी थी।
कमबख्त आंखें खुली तो पता चला वो हकीकत नहीं एक सपना था।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी
शीर्षक:- बनारस
मैं इश्क़ कहूँ, तो तुम बनारस समझना।
मैं सुकून कहूँ, तो तुम घाट समझना।
और मैं शांति कहूँ तो तुम बाबा विश्वनाथ समझना।
शीर्षक:- जिंदगी का संघर्ष
कभी अपनों से लड़ना तो,
कभी सपनों से लड़ना।
कभी अपनों के लिए रोना तो,
कभी सपनों के लिए रोना।
कभी अपनों से रूठना तो,
कभी सपनों से रूठना।
कभी अपनों को मनाना तो,
कभी सपनों को मनाना।
कभी अपनों से बातें करना तो,
कभी सपनों से बातें करना।
कभी अपनों से मिलने का जिद्द तो,
कभी सपनों को पाने का जिद्द।
कभी अपनों को खोने का गम तो,
कभी सपनों को खोने का गम।
कभी अपनों के लिए जागना तो,
कभी सपनों के लिए जागना।
कभी दोस्तों का बिछड़ना तो,
कभी किताबों को ही दोस्त बना लेना।
कभी दोस्तों की यादों में खोना तो,
कभी सपनों की यादों में खोना।
कभी लोगों का बदलना तो,
कभी खुद को ही बदल लेना।

