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MAHIMA YADAV KI KAVITA

शीर्षक:- मैं वह आदर्श बहू हूँ…
मैं वह आदर्श बहू हूँ…
मैं वह आदर्श बहू हूँ
जिसके बोलने की इजाज़त नहीं
जिसकी हँसी भी घर की चौखट लांघ नहीं सकती।
मेरे होंठ पर हाँ का ताला है
ना कहना मेरे लिए पाप जैसा है
कभी कह भी दूँ तो मन के आँगन में
गहरी सजा की दरारें उभर आती हैं।
मैं वह आदर्श बहू हूँ
जिसकी आँखें तो सब देख सकती हैं
मगर मैं देखना ही नहीं चाहती
कहीं बाहर की दुनिया
मेरे सपनों की चादर खींच न ले।
मेरे पाँव साबुत हैं,
फिर भी मैं लँगड़ी कहलाने को विवश हूँ
क्योंकि चलना, बढ़ना, उड़ना
मेरे हिस्से का अपराध है।
मैं वह आदर्श बहू हूँ
जिसकी डिग्रियाँ पिता के घर
धूल फाँकती रह गईं
कभी किताबें पढ़ने की आदत थी
अब अँगूठा स्याही में डुबोकर
सब अधिकार गिरवी रख आई हूँ।
मैं वह आदर्श बहू हूँ
जिसकी सुंदरता सबको गुमान देती है
और जो हर रोज़ शीशे से मुँह फेर लेती है
कि कहीं अपने होने का बोध न जाग जाए।
मैं वह आदर्श बहू हूँ
जिसकी पीठ पर कभी कोई नीला निशान न उभरे
क्योंकि मेरे आँसू सिले हुए हैं
मैं पिटते हुए भी मुस्कुराने का हुनर रखती हूँ
मेरे गालों पर उँगलियों की छाप नहीं पड़ती
क्योंकि मेरा मन पत्थर हो चुका है।
मैं वह आदर्श बहू हूँ
जिसे सब चाहते हैं
जिसे सब बखानते हैं
जिसके पिता नाक रगड़ते हुए कृतज्ञता जताते हैं
और मैं हर दिन धीरे-धीरे मरती जाती हूँ।
कभी सोचती हूँ—
काश, मैं आदर्श न होती
काश, मेरे पास हिम्मत होती
ना कहने की,
सपने देखने की,
रूठ जाने की,
अपने लिए भी जी लेने की…
मैं वह आदर्श बहू हूँ
जिसकी चुप्पी में चीखें दबी हैं
जिसके मुस्कान के नीचे एक श्मशान बसा है
जो सबकी ख़ुशी के लिए
अपने होने को हर दिन
क़ुरबान करती है।