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JAYA SHARMA PRIYAMVADA KI KAVITA

शीर्षक:- बच्चों में माँ
मेरी मां की बातों में
हां बूढ़ी होती मां की रातों में
मेरा बचपन रहता है ।
कुछ नटखट सी शरारतें
कुछ हसती हसाती सी बातों को
माँ अक्सर अपने पल्लू में
देख देख निहारती है ।
मेरे छुटपन के छोटे-छोटे कपड़े ,
रंग-बिरंगे कागज और पत्थरों के टुकड़े ,
आज भी अलग-अलग डिब्बी में सजे हैं ।
मेरे दांतों से चबाया झुनझुना ,
मां के संदूक में आज भी बजता है ।
छोटे कपड़ों में सजा उनका दुलारा
अक्सर सामने आ काजल को
कान के पीछे लगवाता है ।
रसोई से उठती खुशबू को
मेरी मां मेरी पसंद नापसंद को,
माँ मन ही मन तौलती है ।
मेरी बातों और सांसों को
माँ बिन कुछ कहे अपने आप पढ लेती है ।
मेरी जरूरतों और मेरी इच्छाओं की
महक से ही पूरा करने के लिए
मन ही मन भागती है
अपने को बड़ा और समझदार मान चुका हूं मैं ,
पर मां की जरूरत और इच्छाओं को पढ़ने में
मां के मन को पढ़ने के लिए
अक्षर अक्षर पढ़ना सीख रहा हूं मैं।
शीर्षक:- अशेष हूँ मैं
हमेशा रहती हूँ तुम्हारे ध्यान में मैं
यही सोच कुछ मनमानी सी करती हूँ
पता है संभाल लोगे तुम मुझे
यही सोच थोड़ा सा मन का जी लेती हूँ मैं
अगर उठते हुए कदम मेरे
ठहर जाते हैं
तो संग चल मेरे गुनगुनाते हो तुम
अक्सर तुम्हारे होठों की मुस्कुराहट
अपने गालों पर सजाई है मैंने
तेरे मन के राग को गुनगुनाते हुए
तेरे संग शामें बिताई हैं मैंने।
तेरे साथ बिताए हुए समय को
अपने दुपट्टे के कोने में बांध
अक्सर तुमसे ही बात करती हूँ
तुम्हारी आंखों में परवाह अपनी देख
हर पल जीत जाती हूँ मैं।
मेरी उम्मीदों के आंगन में
वटवृक्ष बन सहारा देते हो तुम।
तेरे संग को पाकर ही अशेष हूँ मैं।।
शीर्षक:- खुशनुमा आहटें
सुन लिया है मैंने जिंदगी के राग को
चुन लिया है मैंने जीवन की मिठास को
जिन्दगी के खुशनुमा पलों में
सुन लेती हूँ आहट जब तुम्हारे आने की
तोअपने आप को थोड़ा सा संवार लेती हूँ ।
संवार लेती हूँ मुस्कुराहट से आंखों को
खुले बालों के बीच मेरे चेहरे पर
सुर्खियां आ ही जाती हैं।
अहसास खुशनुमा से हो जाते हैं
हवाएँ गीत की लय पर बहती हैं
तुम्हारे आने के गीत गुनगुनाती हैं।
सुनाई देती है पदचाप जिंदगी की
तो अपने मन को तुम्हारे आने का
नवगीत गा गाकर सुनाती हूँ।।
शीर्षक:- अच्छा लगता है
भागते हुए समय से
अपने लिए कुछ पल
चुराना अच्छा लगता है।
अपनों की परवाह करते करते
अपने आप को निहारना
अच्छा लगता है।
सबकी पसंद नापसंद की
नापतौल करते करते
अपने कदमों को नापना
अच्छा लगता है।
जिम्मेदारी की उलझनों को
सुलझाना अच्छा लगता है।
बेवक्त वक्त को थामना
अच्छा लगता है।
अंधेरे में उजाले को तराशना
अच्छा लगता है।
शीर्षक:- मंद बयार से बच्चे
मंद बयार से घर को आते बच्चे
कुछ बन जाने के सपने को
अपनी पहचान बनाने को
घर के आंगन को रख मुट्ठी में
परदेश गए परदेशी बच्चे।
छोडा हमने भी था
अपने बचपन का कोना
आंखों के पानी को पीकर
बाबा दादी के आंगन को सूनाकर
दिल की हूक छिपाकर सबसे
आकर हम भी परदेश बसे से,
पढ न सके हम
अपनों के दिल की सरगम,
अनपढ़ होने का ढोंग रचे थे।
अपने बच्चों की उड़ान देखकर
माँ दीदी की नम आँखों को,
चुप्पी संग सामान बांधते हुए
पिता के उस पल को
याद कर रहीं गीली आंखें,।
बच्चा बन देख रहे अपने को
परदेश बसे अपने बच्चों में,
खुद की दूरी अपने अपनों से
आंखों के बहते दरिया में
खुद को बहते देख रहा हूँ।।
शीर्षक:- मैं भी हूँ अपने आस पास
मन करता है एक बार
अपने आप से ही बात करूँ
उसकी पसंद नापसंद का ख्याल रखूं
अपने आप के नजदीक जाकर
कांधे पर सर रखकर सुकूँ पाऊँ जरा
पास होकर भी अपने आप से
फैले फैले रहते औरों के साथ ,
याद रखने की कोशिश रहती हमेशा
इच्छा दूसरों की पढने की
फूल पर बैठी तितली को भागकर
पकडने की अपनी इच्छा को
यह सोच कुचल दिया कि
लोग क्या कहेंगे,
बरसात में भीगनें की तलब भी
लोग क्या कहेंगे के मकड़जाल में उलझ गई
अपने होठों पर सजाने के लिए मुस्कान
बच्चों के खिलते चेहरे को आंखों से
छूकर ही आती है तो
अब मुस्कान को चेहरे पर चिपकाने की
जिद्द ठानी है मैंने।
बहुत हुआ अपने को भूल जाना
अब और नहीं।
शीर्षक:- सुनो जब तुम शाम को घर आना
सुनो जब तुम शाम को घर आना
थोड़ी सी मुस्कान चेहरे पर लेकर आना,
रास्ते में मंदिर से आने वाली
घंटियों की आवाज को ध्यान से सुनकर
उनका संगीत मेरे लिए ले आना ।
रास्ते में पडने वाले
पेड़ों की हिलती पत्तियों की
चंचल लहर साथ में लेते आना ।
और हां दिन भर की थकान
कहीं डाल पर टांगते आना।
और हां देखना
गुब्बारों में हवा भरते बच्चों की आंखों में
उनकी उम्मीदों को पढते हुए आना।
रास्ते के मुसाफ़िरों की आंखों को पढकर,
आंखों ही आंखों से
एक दूसरे को सुलझाते हुए आना।
सुनो घर का हर कोना, छत ,मुंडेर ,आंगन, चाकी चूल्हा
सब तुम्हारा इंतजार करते हैं,
सुनो इन सबसे मिलने की खुशी भी
अपने साथ लेते लाना,
हाँ जब शाम को घर आना,
थके हुए कदमों से नहीं
अपने घर की चौखट पर खुशियों को ,
आंखों में सजा कर लेते आना ।
परिचय
शहीदों की नगरी शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश में जन्म लेना, मेरे लिए सौभाग्य की बात रहा ।
पिताजी डॉक्टर नित्यानंद मुद्गल ने गुड़गांव (हरियाणा )से आकर एक अनजान शहर के गांधी फैजाम डिग्री कॉलेज में हिंदी प्रोफेसर के पद पर रहते हुए ,साहित्य के माध्यम से अपनी पहचान स्थापित की।
बचपन से ही पिता जी हमको सांस्कृतिक कार्यक्रमों में ले जाते ,और वहां पर बड़े-बड़े कवि और लेखक नागार्जुन, विष्णु प्रभाकर, और कमलेश्वर आदि को सुनना एक गौरवान्वित अनुभव देने वाला होता।
पिताजी स्वयं हिन्दी के वरिष्ठ कवि हैं ,तो पिताजी के साहित्यिक मित्रों के घर आने से बचपन में ही लेखन के बीज संस्कार में हमारे भीतर रोप दिए गए ।
प्रारंभिक शिक्षा शाहजहांपुर से प्रारंभ होकर रूहेलखन्ड यूनिवर्सिटी के रास्ते ,संस्कृत विषय में यूजीसी नेट परीक्षा उत्तीर्ण कर ,आगे शैक्षिक पठन-पाठन फरीदाबाद (हरियाणा) में भी अनवरत लय में ही है।
प्रकाशित कहानी संग्रह (मनकही)
(मेरे हिस्से का आसमान)
: विभिन्न साहित्यिक मंचों पर कहानी ,कविता और समसामयिक लेखों के द्वारा एक पहचान बनाने की कोशिश ।🙏🙏🙏

