हमारी वेबसाइट “Science ka Mahakumbh” में आपका स्वागत है। यहां पर जसवंत सिंह कुशवाह जी की कविता प्रकाशित किया जाएगा। आप सभी इसका आनंद लीजियेगा।
JASWANT SINGH KUSHWAHA KI KAVITA

शीर्षक:- चूल्हे का सवेरा
बचपन के झरोखों के संग में
मां उठती है भौंर में जल्दी
में भी उठ जाता था संग में …
करती अपना नित्य कर्म
घट्टी से पीसती अनाज
गाती जाती अपने कुछ गीत संग में
फिर जलता चूल्हा अपनी आग में
में बैठ जाता चूल्हे के आगे तपन में
अभी भौर पूरी तरह से हुई नहीं है
इतने में तैयार है मक्के की रोटियां और साग
अब कुछ बची है चुल्हे की राख
जिसके ताव में में बैठा देखता रहता
और याद करता रहता अपने कुछ अक्षर संग में
भौंर होने के पहले अपना कार्य समाप्त कर
हम चलते खेतों की तरफ संग में ….
बैल गाय भैंस सभी को चारा पानी कर
दुध निकाल हम आते वापस घर को संग में
अपना कार्य व पुजा पाठ कर
वो वापस चलती खेतों में
और मैं जाता गांव के विद्यालय में
इसी तरह गट्टी चूल्हे से मां का सवेरा होता
और सांझ होती भोजन में
और अंत में कहानियों के सुनाने में
ये है कुछ मेरी यादें
मां के संग बचपन के झरोखों में
शीर्षक:- आधुनिक परिस्थितियां
गुनाहों का यहां पोथीखाना खुलता है
एक एक कर सभी का हिसाब मंडता है
कमीशनखोरी का यहां मायाजाल चलता है
सच यहां पर सड़कों पर भटकता फिरता है
लील दिए जाते हैं कागज खानापूर्ति में
योजनाओं का यहां रोज जनाजा चलता है
बेचकर अपने अधिकारों को नोटों में
जेब सफाई का यहां फरमान चलता है
होकर के सत्ताधारी नामदार यहां पर
हरामखोरी भ्रष्टचारी का व्यापार सरे आम चलता है
आवाम के लिए योजनाएं बनाई जाती हैं
अधिकारी उसी में मोज उड़ाए जाते हैं
नौकरी,अनाज, पोषाहार, दवाइयां
गरीबी का खून सरेआम यहां बेचे जाते हैं
ईमान को टांक कर दीवार की एक खूंटी पर
शासन और प्रशासन सरे आम मोज उड़ाए जाते हैं
मर जाती हैं भावनाएं वेदनाए दुःख दर्द सभी
नोटों से भरी तिजोरियों का खेल यहा पर चलता है
न्याय खरीद लिया जाता है सरे आम यहां पर
न्यायधीश करोड़ों में खरीदें और बेचे जाते हैं
झूठ बैठता कुर्सियों पर अपना खेल दिखाता है
सच अपना संघर्ष करते करते ही मर जाता है
शीर्षक:- यथार्थ
मेने किसी को बुरा नहीं कहा
हां सही को सहीं गलत को गलत कहा
सच को सच कहा
यर्थाथवाद समाज को प्रस्तुत कर कहा
लड़कियों के बारे में सभी ने लिखा
मेने लड़कों का पक्ष लिखा
उनकी भावनाएं पीढ़ाए लिखी
लिखी समाज की सच्चाई
तो समाज ने लोगों ने
मुझे स्त्री विरोधी घोषित किया
आजकल सच
टांक दिया जाता है
चौराहे पर ,
झूठ के सहारे
सभी को समझने की
अधिकार की
भावनाओं की
प्रलय और विस्तार
जितनी जिम्मेदारी पुरुषों की है
उतनी ही जिम्मेदारी स्त्री की भी है
त्याग की प्रतिमूर्ति तो पुरुष भी थे
पर कभी गिना नहीं गया
बस थोप दी गई जिम्मेदारियां
और जिम्मेदारियों के नाम पर
कम के नाम पर कत्तर्व्य …
प्रपंच मंडा हुआ है
लोगों ने समाज ने सत्ता ने
कभी ओहदे के नाम पर
कभी नौकरी के नाम पर
तो कभी हैसियत के नाम पर
लड़को को तोल दिया गया
कभी दो परिवारों में
कभी बेरोजगारी में
कभी सरकारों में
छले जाते हैं सभी यहां पर
कभी प्रेम में तो कभी दहेज लोभी
हर उपाधी पाई लड़कों ने
नहीं कहा किसी से कुछ भी
कभी झूठे दहेज के लिए
तो कभी डिवॉस के नाम पर
50 लाख के लिए टांका गया
सब कुछ मूक बन सह जाते हैं
हम सिर्फ लड़के है ….
क्यों इसलिए कुछ नहीं कह पाते हैं
सिर्फ झूठे वादे नाम डोंगी प्रपंच
यह अब नहीं चलना चाहिए
अधिकारों के साथ साथ
जिम्मेदारी का भी बराबर बोध होना चाहिए
असर जो भी हो पर प्रगाढ़ होना चाहिए !!
शीर्षक:- रावण दहन
सभी लोग खुश थे
सभी लोगों ने रावण दहन देखा
रावण जल गया,
अच्छाई की जीत का प्रतीक !
पर क्या आज तक
रावण मर पाया है !
क्या रावण का
दहन कर पाए तुम !
रावण मुक्त हुआ
पर क्या तुम
बुराई से मुक्त हो पाए !
क्या तुम त्याग पाए !
अपने अंतः स्थल की वासना ,
बुराई, पाप-कर्म, और विचार !
क्या तुम त्याग पाए !
जलन, ईर्ष्या, वैचारिक मतभेद,
अंहकार ,मोह-व्यापार
क्या तुम त्याग पाए !
अब तक अनीति, अत्याचार,भ्रष्टाचार
रावण जलाकर कर्तव्य मुक्त हो
अपने कर्तव्य को भुला आए तुम !
रावण जला आए पर !
क्या रावण को जला पाए तुम !
शीर्षक:- वृक्ष
जीवन आधार जीवन का सार है
प्राणवायु के द्योतक हम सब के आधार है
इन्ही से चलता हमारा संसार है ….
पर सत्ता यह समझ नहीं पाती है
झूठे वादे देकर बहलाती है
“एक पेड़ मां के नाम ” लगाकर
अभियान चलाया जाता है तो
दूसरी सौर थार का कल्पवृक्ष
रात दिन उजाड़ा जाता है
सत्ता का यह दोहरा चरित्र
कब तक हम यह सहते रहेंगे
विकास के नाम पर
कब तक
हमारे जल जंगल जमीन उजड़ते रहेंगे
है प्राणवायु के हत्यारों
है विकास के लालचंदों
कब तक लालच में यू तुम बेचते रहोगे
अपनी ही मातृभूमि को तुम बंजर करते रहोगे
शीर्षक:- भ्रष्टाचार
कौन दायी होगा
उस दारुण दुःख का,
छत नहीं गिरी वो वो
था काल, गिरा था।
थे जो भारत का भविष्य
आज सिस्टम ने
उसी को ग्रहण लगाया था ।
भेजा था मां ने
लाल मेरा होनहार बनेगा
पर क्या पता था उसको
लाल उसका
भ्रष्ट काल का ग्रास बनेगा
भ्रष्टाचार के इस
असहाय दारुण दुःख का
पता नहीं
अभी और
कितना ये समाज सहेगा—!!
शीर्षक:- मेरे अन्दर से गांव नहीं जाता
हां में आ तो गया हूं शहर
अपने सपनों के लिए
कुछ अपनो के लिए ,
पर कभी कभी मन को
संभाला नहीं जाता
हां मेरे अन्दर से गांव नहीं जाता ,
शहर में एक किराये का कमरा
उसी में बनाता सपनों का आशियाना
उसी में सुबह से शाम किताबों में हो जाना
उसी सपनों में गांव का एक आशियाना बनाना ,
याद वो सावन की फुहार वो भादो की बौछार
बाबा का डांटना और मां का पुकारना
आंखों में आसूं के साथ चलते जाता है
हां मेरे अन्दर से गांव नहीं जाता
आ तो गया शहर में पर
वो गांव की बस्ती का प्यार
वो रोज की तालाब पाल का घुमना
और डोर चराने जंगल में जाना
वो जंगल की बहार की खुशबू संग में चलते जाना
याद आता तो में उदास हो जाता
हां मेरे अन्दर से गांव नहीं जाता
वो खेतों की हरियाली
बरसात और सर्दी की रातों की जाली
खेत की मड़ैया, ऊपर की छतरी
मक्के के खेत, गेहूं की बाली
सभी संग लेकर शहर के कमरे में
आंसू तर कर अपने कमरे में
में चलता जाता
हां मेरे अन्दर से गांव नहीं जाता
हां एक आस तो है
होगा सपना पूरा एक दिन
मां बाबा संग गांव में रहूंगा
बड़ा सा घर खेत खलिहान होंगे
यह सपना देख में बस चलता जाता
हां मेरे अन्दर से गांव नहीं जाता ….
शीर्षक:- सड़कों पर ख़्वाब रौंदे जाते हैं
सड़कों पर ख़्वाब रौंदे जाते हैं ,
संसद में सिर्फ योजनाओं के बिज बोए जाते हैं !
चलना है जिस जगह निर्माण पथ पर ,
वहां कब तक भ्रष्टाचारी आएंगे !
चीखती है यहां अब संसद की दीवारें ,
कब यहां भ्रष्टाचारी ढहाए जाएंगे !
आना जाना चलता है हर बार यहां पर ,
कब यहां पर ईमानदार से कर्म निभाए जाएंगे !
कर्म और अधिकार भी चिंतित है ,
कब यहां पर स्वतंत्रता के मोल चुकाएं जाएंगे !
शीर्षक:- अन्तर्द्वन्द
जिम्मेदार आप थे में नहीं
खिलाफ आप थे में नहीं
बनावटी चेहरा आपका
बनावट आप थे में नहीं
गिरी जब बारिश
बूंद आप थे
खारा समंदर आप थे
नदी का झरना आप थे
ताल तालिया
संगम घाटी
पुरानी यादें
काटी जो राते
बीती जो बाते आप थे
आप नही तो
कुछ भी नही
फिखा सावन
रुखा मौसम
उजड़ा जैसे अंतर्मन
मन के भीतर सब रिसता है
मन के भीतर मन बसता है
ये मौसम ये सावन तो चलता है
उजड़े अन्तर्मन में
फिर एक द्वंद पलता है
फिर सब रिसता है
मन के भीतर मन बसता है
शीर्षक:- क्या लिखूं
कुछ दर्द लिखू या कुछ एहसास लिखू
या फिर प्रियतमा का मनभावन उपहार लिखू
आँसू लिखू या प्यार लिखू या वो प्यारी सी मुस्कान लिखू
वो समझदारों सा एहसास लिखू
या फिर लिखू कोई स्वछंद विचरण
वो प्रेम पत्र लिखू या लिखू कोई कविता
मनभावन सी मुस्कान लिखू या लिखू आँख का तारा
निश्छल चरित्र लिखू या लिखू आँखों का टिमटिमाता सितारा
क्या लिखू कुछ दर्द लिखू कुछ अहसास लिखू
मन के खालीपन में सिर्फ अपना यह अहसास लिखू
जो उसको भी प्यारा है जो मुझको भी प्यारा है
या वो प्यारा सा अहसास लिखू …….. !!!
शीर्षक:- गांव
में अपने सपनों का संसार लाया हूं
कुछ क्षण, कुछ यादें, कुछ बातें साथ लाया हूं ,
हां में गांव अपने साथ लाया हूं !
वो गांव का कच्चा घर, कोल्हू की छत
वो मिट्टी का चूल्हा, लोहे की कड़ाही ,
वो राती मिट्टी से लिया हुआ आंगन साथ लाया हूं !
याद है चूल्हे पर प्यार की आँच मे तपकर
वो मां का रसोई बनाना, हां मां का स्वाद लाया हूं
हां में गाव अपने साथ लाया हूं ,
वो मक्के की रोटी वो सरसो मेथी का साग लाया हूं
हां में गांव अपने साथ लाया हूं !
वो सौंधी मिट्टी की खुशबू वो बारिशों की बौछारें साथ लाया हूं ,
हां में गांव अपने साथ लाया हूं !
वो सावन की बरसात कुछ यादों की बारात
हरियाली की बहार लाया हूं, हां में गांव साथ लाया हूं !
वो जंगल में विहार पर जाना और तालाब पर नहाकर आना
दादी की बातें ,बाबा की डाट, मां का प्यार लाया हूं ,
हां में गांव अपने साथ लाया हूं !
वो गांव की मिट्टी,खेतों की हरियाली और गेहूँ की बाली
वो लहलहातीं फसलों की मेरी यारी साथ लाया हूं ,
हां में गांव अपने साथ लाया हूं !
वो कुए का ढाणा, खेतो का विचरण लाया हूं
लाया हूं गांव का एक संसार ,
हां में गांव अपना साथ लाया हूं !
खेत खलिहान , घर- परिवार
अपनी मातृभूमि का संसार लाया हूं ,
हां में गांव अपने साथ लाया हूं !
कुछ रिश्ते कुछ नाते , अपने एक प्रेम का संसार लाया हूं ,
हां में गांव अपने साथ लाया हूं
कुछ यादें कुछ बातें , कुछ अपनों का प्यार लाया हूं ,
हां में गांव अपने साथ लाया हूं !
कुछ अपनों के लिए, कुछ सपनों के लिए
में बहुत कुछ छोड़कर आया हूं,हां में अपना इक संसार लाया हूं
हां में गांव अपने साथ लाया हूं !
हां कुछ सपनों के लिए,
में अपना एक धड़कता दिल छोड़ आया हूं ,
हां में गांव अपने साथ लाया हूं !!
शीर्षक:- अन्तर्मन
बहुत कुछ छुटता जा रहा है
वक्त है की हाथ से निकलता जा रहा है
हम है मझधार में थपेड़ो के संग किरदार में
ये वक्त ही है जो अपना रंग दिखाते जा रहा है
कुछ पाने की चाह में बहुत कुछ छुटता जा रहा है
वक्त है की हाथ से निकलता जा रहा है
वेदना, कुछ पल स्मृति में कोंध कर कुछ क्षण के लिए
व्याकुल वृथा मन को हमारे द्वारा समझाया जा रहा है
हाँ कुछ पाने की चाह में बहुत कुछ छुटता जा रहा है
सभी को झंझोड़कर फेकने की चाह में
व्याकुल वृथा ये जीवन निकला जा रहा है
हां बहुत कुछ पाने की चाह में
हाँ बहुत कुछ पिछ छुटता जा रहा है ……….
शीर्षक:- बस चलते जा रहे हैं
बस अब सिर्फ चलते जा रहे हैं
न मंजिल का पता न अपनो का
शूल पथ के पथिक है बस बड़ते जा रहे हैं
न अपनी खबर न अपनो की
न किसी के लिए अब विकल है
स्वंय को लिए साथ अब बस चलते जा रहे हैं
दिन के पहर हो या हो रजनी का तम
बस खुद में ही खोये हुए हैं हम
हां अब हम बस चलते जा रहे हैं
घना हो कोहरा या हो अंधकार का बसेरा
अन्तर्मन की ज्योति जलाए हुए
एक किरण पुंज की खोज में मंजिल की आस में
अपने कदम बढ़ाए जा रहे हैं
हां अब हम बस चलते ही जा रहे हैं
शीर्षक:- रात्रि में प्रिय झील के किनारे
रजनी के पिछले पहरों में
प्रिय यादों की लहरों में
विकल होकर बैठी …..
शीतल मंद समीरों में ..
पहले प्रिय साथ था
आभा थी सब कुछ
जो भी था उसी स था
फिर अचानक
बिजली जी कौंध स्मृति में आयी
जैसे नंगाडे की टंकार सी छाय
यमिनी , तमी, क्षणदा में बेठी
निर्झर झरने के किनारे
पहले पहले प्रिय संग था
अब सिर्फ स्मृति की अंगड़ाई है
उस मधुर मिलन की स्मृति चन्द्रिका में छाई है
निर्झर झील का किनारा
और प्रिय मिलन की स्मृति की कौंध आई है
बिखरे मेरे ये प्रेम पत्र
अब इसी में समेट लिया है
ये निशा ही है जिसने मुझे संग लिया है
शीर्षक:- मोहब्बत
इन अफसानों की फ्रिक नहीं
अब हम हकीकत से डरते नहीं
मोहब्बत मुकम्मल होती नहीं जहां में
अब हम ऐसी मोहब्बत से डरते नहीं
दिल लगाकर किसी से, फिर छोड़ देना
मोहब्बत में आजकल यह रिवाज चलता है
कोशिश करे भी तो क्या करे किसी का होने का
अब तो किसी का होने से डर लग लगता है
हमें अब याद नहीं आती किसी की पर
हां ये दर्द ए दिल अपना यार पुराना है
ये इश्क ए दौर सिर्फ ख़्वाबों में अच्छे लगते हैं
जब दौर ए इश्क़ आता है तो सब छिन ले जाता है
चाहते हैं जिसे वो,सभी की किस्मत में कहा
कभी कभी तो जीना भी एक सजा लगता है
कभी कभी सोचते हैं वो सिर्फ हमारे है
पर अब उनका हमारा होने से भी डर लगता है
शीर्षक:- में और वो
जब भी मिलते हैं यार
अक्सर उसकी ही बात करते हैं
क्या करती है कैसी है
बस यह ही बतलाते रहते हैं
में अब एक खामोश सन्नाटों सा हूं
अक्सर चुप ही रहता हूं
शांत गहरा अपने में रहता हूं
क्योंकि जमीर बेचकर
सौदा करना मुझको नहीं आता
हालात जो भी हो
चरित्र पर अंगुलियां जब उठे
उसके बाद मुझे
फिर कभी झुकना नहीं आया
नाम जसवंत सिंह कुशवाह
परास्नातक (हिन्दी साहित्य)
कोटा विश्वविद्यालय,कोटा राजस्थान
Ex. Secretary – Kota Technician chapter (student chapter)
Kota local centre kota
The institution of Engineers,India
शिक्षा – polytechnic – Electrical Engineering
AMIE/ B.E.(Sec.B) – Electrical Engineering (IEI kolkata)
B.A. +. B.Ed. – Hindi,History,sociology
M.A. – Hindi, History
पता – ग्राम व पोस्ट मोठपुर तह . अटरू जिला बारां राजस्थान

