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BABITA SHARMA KI KAVITA

शीर्षक:- कण – कण में बहता है प्रेम…!
तू मुझे मेरे अंदर मिल क्यों नहीं पा रहा मैं यह सवाल तुझसे पूछना चाहती हूं…
मोहब्बत तो बहुत है उसमें कोई शक नहीं, फिर भी तुझे खुद में ढूंढना चाहती हूं…
तुम पूछते हो मेरे मन जी के बारे में मैं हिचकिचा सी जाती हूं…
कहीं छूट न जाओ तुम मेरी आत्मा से छिटक के, घबरा सी जाती हूँ…
शिकायतें तो बहुत रहती हैं जिंदगी से और इंसान रो देता है
लेकिन खुशी इस बात की है कि जो मिला है वह तो कितनों को नहीं मिलता…
हृदय के अंदर रुधिर के एक-एक कण में बहता है प्रेम हमारा
बनकर प्राण वायु सा दे देता है हमें जीवन दुबारा…
विश्वास नहीं दिला सकते जो सच है उसे झुठला नहीं सकते
निकाल कर देदे अगर जान अपनी तो भी तेरे प्यार की कीमत चुका नहीं सकते…
तेरे संग अपनी दूरियों का हिसाब लगा नहीं सकते
क्या – क्या नाम मिले तेरा होके बता नहीं सकते
तुमसे ही तुम्हारे जाने की शिकायत करनी है
पर तुमको अब वापिस हम बुला नही सकते
कह सकते तो बस इतना ही कह देते हमसे
इन फ़ासलो को कम करते तुम साथ देते अगर तो आज हम संग होते है…
शीर्षक:- जब तू मिला…!
दिल मेरा आखिरी सांसे गिन रहा था…..जब तू मिला…!
छूट रही थी आत्मा मेरे इस शरीर से….. जब तू मिला…!
देख कर तुझे कुछ सांसों को रवानी मिली
जिंदगी को मेरी कुछ पलों की जवानी मिली
आज़ाद हुई मैं उस दिन यम की जंजीरों से
मुझको अपने लिए एक और जिंदा कहानी मिली
देख कर तुझे कुछ सांसों को रवानी मिली…!
इठलाती बलखाती अपने पंखों में नव रंग भरने लगी
उन्ही उम्मीदों के सहारे मैं आसमा में उड़ने लगी
सब कुछ सौप उसको उसको खुद में पा लिया
बावरी सी होकर बस उसकी याद में तड़पने लगी
देख कर तुझे कुछ सांसों को रवानी मिली…!
शीर्षक:- कैसे कहुँ तुझसे…!
कैसे कहुँ तुझसे
कितनी मोहब्बत है
तुमसे
तुम दिखा देते हो
दर्द
किसी ना किसी तरह से
मैं रह जाती
खुद के दर्द से अनजान
देख तेरे दर्द को
जब होता तू बेजान
मैं भूल जाती
बेबस पाती
खुद को
और डूब जाती
तेरे ही अंदर
बन मीठी बयार
तेरे दिल को देती
अपने प्रेम की
फुहार
और तू
रो पड़ता उस दर्द से
और भी ज्यादा
और हो जाती मैं
निढाल
तेरे जाने के बाद
खुद से बेहाल
भारी सा हो जाता
सीना मेरा
चुबती कोई फांस
रूकती जाती
मेरी सांस
कठिन होता सबकुछ
ना रो पाती
ना सो पाती
हारी सी मैं
खुद से लड़ जाती
देती खुद को
तकलीफ
मौत से आगे मैं
बढ़ती जाती…
तेरे साथ… बस…
मोहब्बत जो है तुझसे…
शीर्षक:- कई रंग हैं अभी हौसलों में…!
तू रो रहा है क्या???
कुछ हो रहा है क्या??
दर्द तकलीफ देता हैं…
कुछ सोच रहा है क्या??
कुछ मर चुका है क्या??
कुछ बिछुड गया है क्या??
मिलना ज़िन्दगी होता है…
कुछ मिला नहीं है क्या??
कुछ ख़ता हुई है क्या??
कुछ बता, हुआ है क्या??
टूटन चुभती हैं कांच सी…
कुछ घाव हरा हैं क्या??
कुछ नींद उडी है क्या??
कुछ बूँद गिरी है क्या??
तकिया क्यों गीला है…
कोई आंख रोई है क्या??
कुछ खो गया क्या??
कुछ सो गया है क्या??
आँखों में नींद नहीं है…
कुछ बह गया है क्या??
वो इक नदिया थी क्या?
खिलती बगिया थी क्या?
कुछ था तेरा खुद का…
उसमें मिला था क्या??
और…..
पास है तेरे कोई बिना उम्मीद के…
रंग भर रहा कोई बादलो में जीत के …
तू देखता हैं बस एक रंग ही, क्यों…
कई रंग हैं अभी हौसलों में, प्रीति के…
शीर्षक:- मोहब्बत की डगर….!
मान-सम्मान सब त्याग कर क्या तू चल सकेगा मेरे साथ?
प्रेम की अंधेरी राहों पर कदम रख सकेगा मेरे साथ?
मेरा तो कुछ भी नहीं है पीछे जो मैं वियोग-विलाप करुँ,
मैं तो बहती-सी नदियां हूं, क्या तू संगम करेगा मेरे साथ…?
कठिन बड़ी है प्रेम राह की तू इस बात को जान ले,
प्रेम बहुत है तुझसे दिल से इस बात को मान ले,
तेरी राहों में आये कांटों पर मैं जिस्म अपना बिछा दूंगी,
छलनी-छलनी कर दूंगी आत्मा को, तेरी मुस्कान सजा दूंगी…
मिला ईश्वर का आशीर्वाद हमें तो क्यों ना मैं इसको माथ लगाऊं?
जो मिल जाए उस ईश्वर से, उससे क्यों ना मैं शीश सजाऊं?
लेकर चरण रज तेरी अपने माथे का मैं तिलक करूं,
मुझको मिली है मेरी खुशियां तो क्यों मैं इतराऊं…?
शीर्षक:- बंद दरवाजों से झांकती दो उदास आंखें…!
कुछ घरों के दरवाजे अक्सर बंद हो जाया करते हैं,
अंदर ही कुछ सिसकियों से मर भी जाया करते हैं,
कुछ सूनी सी दीवारें आज भी राह तकती रहती है,
अक्सर दीवारों से प्लस्तर भी उखड़ जाया करते हैं!
बंद घरों के अंदर ही सारी ख्वाहिशे घूमती रहती हैं,
एक कोना अश्क बहाने का फिर वो ढूंढती रहती हैं,
अपनी चुनरी की ओट में पी जाती है वो ये सारे गम,
उफ़ तक नहीं करती, ना रोती, ना ही सिसकती है!
अक्सर बंद खिड़कियों पर परदे इस तरह लगे होते हैं,
भीतर भीतर न जाने कितने अरमान सुलग रहें होते है,
बंद दरवाजों से झांकती रहती वह दो उदास सी आंखें,
वक़्त के साथ खुद के साये भी अब बूढ़े होने लगते हैं!
कभी मैं उस खिड़की की तरफ झांक लिया करता था,
राह चलते उन निगाहों में उदासी भांप लिया करता था,
कैसे उस को मेरी आहट का पता चल जाया करता था,
वो आंखों को अपनी हथेलियां से ढांप लिया करता था!
एक कसक सी उठ जाया करती जब मैं उसे देखता था,
बंद पिंजरे से मैं उसको क्यों आज़ाद कराना चाहता था,
आजादी प्यार की, आजादी रूह की, हक़ उसका भी था,
प्रेम का ये तोहफा, उसको फिर याद दिलाना चाहता था!
अभिशाप तो नहीं है यूँ विधवा हो जाना इस संसार में,
क्यों लोग सभी रंगों को एक सफेद रंग में बदल देते हैं,
इच्छाएं नहीं मरती, मोहब्बत तो फिर भी जिंदा रहती है
दकियानूसी लोग इस दिल को जिंदा क्यों नहीं रहने देते हैं ?
बबिता
रामनगर
वाराणसी
मेरा नाम बबीता है और मैं दिल्ली से हूं, फिलहाल मैं बनारस में रह रही हूं… मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन और Bca किया है, बनारस से मैंने (M. A. hindi lit. gold medalist), B. Ed, M. Ed(education) से आगे की शिक्षा ग्रहण की है…अभी phd के लिए नेट दे रही हूँ…