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ABHIJEET CHATURVEDI KI KAVITA

शीर्षक:- जीवनचर्या
प्रचुरता नहीं मुकम्मल है,
तुम कतरों में जीना सीखो।
सुख को सार बनाने वाले,
तुम खतरों में जीना सीखो।
सृष्टि है सभी की प्रबल आलोचक,
कोई नहीं एकछत्र यहां।
लोकतंत्र हो राजतंत्र या,
न हीं प्रजातंत्र स्वतंत्र यहां।
लहू लुहान जवानी लेकर,
तुम पत्थर को पीना सीखो।
हां तुम खतरों में जीना सीखो,
हां तुम खतरों में जीना सीखो।
ये धर्मयुद्ध ये मानवता ये,
सदियों से प्रबुद्ध रहा;
नहीं है अंतिम कड़ी न इसकी।
सबका आशय युद्ध रहा,
विचरण करो खगोल की भाषा में
नक्षत्र भी टकराते हैं, अंकुरित होता बीज सदैव, त्वरित वृक्ष मर जाते हैं।
न हीं अंत न हीं प्रारंभ है,
हैं युग युग का संताप यही।
नीति धर्म त्याग कर सोचो,
कहीं पुण्य सही कहीं पाप सही।
सबका नियम बनाने वाले,
संचालक को पहचानो तुम।
मालिक बनो अपने जीवन का,
प्रजातंत्र न मानो तुम।
देश है खतरा, जात है खतरी,
धर्म है खतरा, बात है खतरी,
जनता की विश्वास है खतरी ;
ये आना जाना नियम धर्म,
किसको कौन चलाता है ?
सबके नियम बनाने वालों को,
मालिक कौन बनाता है ?
माँ भारती के वंशज तुम,
अपने अस्तित्व को पहचानो,
नहीं है परिचय भिन्न तुम्हारा,
सिर्फ राष्ट्रभक्त खुद को मानो।
तुम निर्णय लो नियम कौन सा,
जनहित का फूल रहेगा,
तुम दृढ़इच्छा शक्ति को जानो कौन अतुल रहेगा।
समझो तुम अपनी परछाई को,
देह भी नहीं सत्य यहां,
गुण, आत्मा जात पात में,
न हो कभी विभक्त यहां।
धरती है तुम्हारी तुम राजा हो,
तुम नहीं अलंकृत तुम सादा हो।
खुद से न प्रतिघात करो,
मानवता हीं धर्म एक, न उससे ऊपर कोई जात करो।
वैचारिक गुलामी को जंजीरों से,
तुम खुद को आजाद करो,
त्यागो अपने मनोभाव को,
तुम मानवता में जीना सीखो।
ये भेदभाव को पीना सीखो,
तुम खतरों में जीना सीखो
हां तुम खतरों में जीना सीखो।

